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________________ २, ६, १७.] खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवणं [ ३१९ सणक्कुमारप्पहुडिउवरिमदेवा सव्यपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो असंखेजगुणे अच्छंति । णवरि सबढदेवा सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय-बेउवियपदपरिणदा माणुसखेत्तस्स संखेजदिमागे अच्छति । कथं ? सबढे वेयण-कसायसमुग्वादाण तेहिंतो समुप्पज्जमाणथोवविपुंजणं पहुच्च तधोवदेसादो, कारणे कज्जोवयारादो वा । एत्थ देवाणमोगाहणाणयणे उवउजंतीओ गाहाओ पणुवीस असुराणं सेसकुमाराण दस धणू होति । उतर-जोदिसियाणं दस सत्त धणू मुणेयव्वा ॥ १ ॥ सोहम्मीसाणेसु य देवा खलु होंति सत्तरयणीया । छच्चेव य रयणीयो सणवकुमारे य माहिंदे ॥ २ ॥ सानत्कुमारादि उपरिम देव सर्व पदोंसे चार लोकोंके असंख्यातवे भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव स्वस्थान स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमु द्घात, इन पदोस परिणत होकर मानुषक्षेत्रके संख्यातवे भागमें रहते है, क्योकि, सर्वार्थसिद्धि विमानमें वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त देवोंके उनसे उत्पन्न होनेवाले स्तोक विसर्पणकी अपेक्षा कर उस प्रकारका उपदेश किया गया है, अथवा कारणमें कार्यका उपचार करनेसे वैसा उपदेश किया गया है । यहां देवोंकी अवगाहनाके लाने में ये उपयुक्त गाथायें है असुरकुमारोंके शरीरकी उंचाई पच्चीस धनुष और शेष कुमारदेवोंकी दश धनुष होती है । व्यन्तर देवोंकी उंचाई दश धनुप और ज्योतिषी देवोंकी सात धनुषप्रमाण जानना चाहिये ॥ १ ॥ सौधर्म व ईशान कल्पमें स्थित देव सात रत्नि ऊंचे, और सनत्कुमार व माहेन्द्र कल्पमें छह रत्नि ऊंचे होते हैं ॥ २ ॥ १ असुराण पंचवीसं सससुराणं हवंति दस दंडा । एस सहाउच्छेहो विक्किरियंगेमु बहुभेया ॥ ति. प. ३, १७६. अढाण वि पक्कं किण्णरपहुदीण वेंतरसुराणं । उच्छहो णादवो दसकोदंड पमाणेण ॥ ति. प. ६, ९८. णवरि य जोइसियाणं उच्छेहो सत्तदंडपरिमाणं । ति. प. ७, ६१८. २ शरीरं सौधर्मशानयोर्देवानां सप्तारत्निप्रमाणम्, सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः षडरत्निप्रमाणम् , ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तर-लान्तवकापिष्टेसु पंचारत्निप्रमाणम्, शुक्रमहाशुक्र-शतारसहस्रारेषु चतुररनिप्रमाणम्, आनतप्राणतयोर चतुर्थारनिप्रमाणम्, आरणाच्युत योस्यरस्निप्रमाणम्, अधोग्रेवयकेषु अर्द्ध तृतीयारस्निप्रमाणम्, मध्य ग्रत्यकेष्वरत्निद्वयप्रमाणम्, उवरिमवेयकेषु अनुदिशविमानेषु च अध्यर्धारत्निप्रमाणम्, अनुत्तरेष्वरस्निप्रमाणम् । स. सि. ४, २१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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