SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८] छक्खंडागमे खुदाबंधी [२, ६, १७. ण विरुज्झदे, सत्थाणादिसु तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागुवलंभादो । णवरि जोदिसिएसु उवक्कमणकालो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, संखज्जवासाउआणमभावादो । सोहम्मीसाणा' सत्थाण-विहारवदिसत्याग-वेयण-कसाय बेउब्धियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छति। एत्थ सग-सगखेत्तविण्णासो काययो । अप्पणो ओहिक्खेतमेत्तं देवा विउव्यंति त्ति जं वयणं तण्ण घडदे, लोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तवेउब्धियखेत्तप्पहुडिप्पसंगादो। मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुगे अच्छति । एत्थ ताव उववादखेत्तविण्णासो कीरदे । तं जहा- सगविक भसूचिगुणिदसेडिं ठत्रिय पलिदोवमरस असंखेज्जदिभागेण सोहम्मीसाणुवामगकालेग ओवट्टिदे उप्पजमाणजीवा होति । पहापत्थडे उप्पजमाणजीवाणमागमणट्टमवरेगो पलिदोवमस्य असंग्वेजदिभागो भागहारो टवेदव्यो । पुणो एदस्य पदरंगुलगुणिदसेडीए संखेजदिमागे गुणगारेण ठविदे उववादखेत्तं होदि । एवं चेत्र मारणंतियखेत्तपरिकचा कायया । .............. विरुद्ध नहीं है; क्योंकि, स्वस्थानादिक पदों में तिर्यग्लोकका संख्यातयां भाग पाया जाता है। विशेष इतना है कि ज्योतिषी देवों में उपक्रमणकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, उनमें संख्यात वर्षकी आयुवालोंका अभाव है। स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनास नुदात, कपायसमुद्घात और वैऋियिकसमुद्घातको प्राप्त सौधर्म-ईशान कल्पवासी देव चार लोकोंक असंख्यातवें भाग तथा मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां अपना अपना क्षेत्रविन्यास करना चाहिये। 'देव अपने अवधिक्षेत्रप्रमाण विक्रिया करते हैं' इस प्रकार जो यह वचन है वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसामानने में लोकके असंख्यात भागमात्र वैक्रियिकक्षेत्रादिका प्रसंग आता है । (देखो पुस्तक ४, पृ. ७९-८०)। मारणान्तिक व उपपादको प्राप्त उक्त देव तीन लोकों के असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । यहां उपपादक्षेत्रका विन्यास करते हैं। वह इस प्रकार है-अपनी विष्कम्भसूचीसे गुणित जगश्रेणीको स्थापित कर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सौधर्म-ईशान कल्पवासी देवोंके उपक्रमणकालसे अपवर्तित करनेपर उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। प्रभा प्रस्तारमें उत्पन्न होनेवाले जीवोका प्रमाण जानने के लिय एक अन्य पल्यापमका असंख्यातयां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये । पुनः इसके प्रतरांगलसे गणित जगश्रेणीके संख्यातवें भागको गुणकार रूपसे स्थापित करनेपर उपपादक्षेत्रका प्रमाण होता है। इसी प्रकार ही मारणान्तिकक्षेत्रकी परीक्षा करना चाहिये। १ प्रतिषु ' सोहम्मीसाण ' इति पाठः। २ प्रतिषु · संखेन्जदि-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy