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२, ५, १०४.] दव्यामाणाणुगमे इस्थिवेदादीणं पमाणं
[ २८१ संखेज्जा त्ति वयणेण असंखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । संखेज्जं जदि वि अणेयपयारं तो वि चदुवण्णभंतरे चेव ते होंति, णो बहिद्धा, आहारमिस्सकालम्मि तिजोगावरुद्धपज्जत्ताहारसरीरकालादो संखेज्जगुणहीणम्मि संचिदाणं जीवाणं चदुवण्णसंखाविरोहादो । आइरियपरंपरागदउवदेसेण पुण सत्तावीस जीवा होति ।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १०२ ॥ सुगमं । देवीहि सादिरेयं ॥ १०३ ॥
देवरासिं तेत्तीसखंडाणि काऊणेगखंडमणिदे देवीणं पमाणं होदि । पुणो तत्थ तिरिक्ख-मणुस्साण इथिवेदरासिं पक्खित्ते सव्विस्थिवेदरासी होदि त्ति देवीहि सादिरेयमिदि वुत्तं ।
पुरिसवेदा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १०४ ॥ सुगमं ।
‘संख्यात हैं' इस वचनसे असंख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया है । यद्यपि संख्यात भी अनेक प्रकार है तथापि वे चौवनके भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि तीन योगोंसे अवरुद्ध पर्याप्त आहारक शरीरकालसे संख्यातगुणे हीन आहारमिश्रकालमें संचित जीवोंके चौवन संख्याका विरोध है। किन्तु आचार्य परम्परागत उपदेशसे सत्ताईस जीव होते हैं । (देखो जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र १२० की टीका)।
वेदमार्गणाके अनुसार स्त्रीवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १०२॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देवियोंसे कुछ अधिक हैं ॥ १०३ ॥
देवराशिके तेतीस खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डके कम कर देनेपर देवियों का प्रमाण होता है । पुनः उसमें तिर्यंच व मनुष्य सम्बन्धी स्त्रीवेदराशिको जोड़ देनेपर सर्व स्त्रीवेदराशि होती है, इसीलिये 'स्त्रीवेदी देवियोंसे कुछ अधिक हैं' ऐसा कहा है।
पुरुषवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १०४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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