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________________ २८२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [ २, ५, १०५. देवेहि सादिरेयं ॥ १०५॥ देवरासिं तेत्तीसखंडाणि कादण तत्थेगखंड देवाणं पुरिसवेदपमाणं । पुणो तत्थ तिरिक्ख-मणुस्सपुरिसवेदरासिम्हि पक्खित्ते सव्वपुरिसवेदपमाणं होदि ति देवेहि सादिरेयपमाणं होदि त्ति वुत्तं । णqसयदा दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १०६ ॥ सुगमं । अणंता ॥ १०७ ॥ एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो। तिविहे अणते दोण्हमणंताणं पडिसेहट्ट. मुत्तरसुत्तं भणदि-- अणंताणताहि ओसंप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ १०८ ॥ एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहणणअणंताणतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताण पुरुषवेदी द्रव्यप्रमागकी अपेक्षा देवोंसे कुछ अधिक है ॥ १०५ ॥ देवराशिके तेतीस खण्ड करके उनसे एक खण्ड देवों में पुरुषवेदियों का प्रमाण है । पुनः उसमें तिर्यंच व मनुष्य सम्बन्धी पुरुषवेदराशिको जोड़ देनेपर सर्व पुरुषयेदियोंका प्रमाण होता है, इसी कारण 'पुरुषवेदियोंका प्रमाण देवोंसे कुछ अधिक है' ऐसा कहा है। नपुंसकवेदी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १०६ ॥ यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदी द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १०७ ॥ इस सूत्र के द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । अब तीन प्रकारके अनन्तमेसे दो अनन्तोंके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं नपुंसकवेदी कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत नहीं होते हैं ॥ १०८॥ इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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