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________________ २, १, ४४.] सामित्ताणुगमे णाणमग्गणा । ८५ दसणं पि, दोण्णमण्णोण्णाविणाभावादो। णाण-दसणाणमभावे ण जीवो वि, तस्स तल्लक्खणत्तादो त्ति । ण विदियपक्खो वि, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- ण पढमपक्खवुत्तदोससं भवो, पसज्जपडिसेहेण एत्थ पओजणाभावा । ण विदियपक्खुत्तदोसो वि, अप्पेहितो' वदिरित्तासेसदव्येसु सविहिवहसंठिएसु पडिसेहस्स फलभावुवलंभादो । किमढे पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे, विहि-पडिसेहभावेण दोण्हं णाणाणं विसेसाभावा ? ण परदो वदिरित्तभावसामण्णमवेक्खिय एत्थ पडिसेहो कदो जेण सम्माइट्ठिणाणस्स वि पडिसेहो होज्ज, किंतु अप्पणो अवगयत्थे जम्हि जीवे सद्दहणं ण वुप्पज्जदि अवगयत्थविवरीयसद्धप्पायणमिच्छत्तुदयबलेण तत्थ जं ....... दर्शन भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंका परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है । तथा ज्ञान और दर्शनके अभावमें जीव भी नहीं रहता, क्योंकि, जीवका तो ज्ञान और दर्शन ही लक्षण है। दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि, यदि अज्ञान कहनेपर ज्ञानका अभाव न माना जाय तो फिर प्रतिषेधके फलाभावका प्रसंग आजाता है ? समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं- प्रथम पक्षमें कहे गये दोषकी प्रस्तुतमें संभावना नहीं है, क्योंकि यहांपर प्रसज्यप्रतिषेध अर्थात् अभावमात्रसे प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्षमें कहा गया दोष भी नहीं आता, क्योंकि, यहां जो अज्ञान शब्दसे शानका प्रतिषेध किया गया है उसकी आत्माको छोड़ अन्य समीपवर्ती प्रदेशमें स्थित समस्त द्रव्योंमें स्व पर विवेकके अभाव रूप सफलता पायी जाती है। अर्थात् स्व-पर विवेकसे रहित जो पदार्थ ज्ञान होता है उसे ही यहां अज्ञान कहा है। . शंका-तो यहां सम्यग्दृष्टिके ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध भावसे मिथ्यादृष्टिज्ञान और सम्यग्दृष्टिज्ञानमें कोई विशेषता नहीं है ? समाधान-- यहां अन्य पदार्थों में परत्वबुद्धिके अतिरिक्त भावसामान्यकी अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया जिससे सम्यग्दृष्टिज्ञानका भी प्रतिषेध होजाय। किन्तु शात वस्तुमें विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करानेवाले मिथ्यात्वोदयके बलसे जहांपर जीवमें अपने जाने हुए १ प्रतिषु ' अण्णेहिंतो' इति पाठः । २ प्रतिषु ' -विवरीयसदुप्पायण- ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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