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________________ १५२ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, २, १३३. सुगमं । अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १३३॥ अभवियं पडुच्च एसो णिदेसो, अभव्वसमाणभव्यं वा । अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १३४ ॥ एसो भवियजीवं पडुच्च णिदेसो क हो । सादिओ सपज्जवसिदो ॥ १३५॥ एसो णिदेसो णाणादो अण्णाणंगदभवियजीवं पडुच्च कदो । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसो-जहाणेणं अंतोमुहुत्तं ॥ १३६ ॥ सम्माइद्विस्स मिच्छत्तं गंतूण मदि-सुदअण्णाणाणि पडिबज्जिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय सम्मत्तं गंतृण पडिवण्णमदि-सुदणाणस्स जहण्णकालुवलंभादो । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं ॥ १३७ ॥ यह सूत्र सुगम है। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका काल अनादि-अनन्त है ॥ १३३ ॥ यह निर्देश अभव्य अथवा अभव्य समान भव्य जीयकी अपेक्षासे किया गया है। उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल अनादि-सान्त है ॥ १३४ ॥ यह निर्देश भव्य जीवकी अपेक्षासे किया गया है। उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल सादि-सान्त है ॥ १३५ ।। यह निर्देश ज्ञानसे अज्ञानको प्राप्त हुए भव्य जीवकी अपेक्षासे किया गया है। जो वह सादि-सान्त है उसका निर्देश इस प्रकार है-सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञानको प्राप्त हुआ भव्य जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी रहता है ॥ १३६ ॥ क्योंकि, सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानको प्राप्त कर एवं सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको प्राप्त करनेपर जघन्य काल पाया जाता है। उपर्युक्त जीव अधिकसे आधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी रहता है ।। १३७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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