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________________ एगजीवेण कालानुगमो एगजीवेण कालानुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइया केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १ ॥ एत्थ मूलोहो कि परुविदो ! ण, चउग्गहपरूवणेण तदवगमादो । णिरयइस सगइणिसेडो । जहणेण दसवस्ससहस्साणि ॥ २ ॥ तिरिक्खस्स वा मणुस्सस्स वा दसवस्ससहस्साउट्ठिदीएसु णेरइएस उप्पज्जिदृण गिप्फिडिदस्स दसवस्ससहरसमेत हिदिदंसणादो | उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि ॥ ३ ॥ तिरिक्खस्स वा मणुस्सस्स वा सत्तमाए पुढवीए तेत्तीस सागरोवमाउट्ठिर्दि बंधिऊण तत्थुपजिय सगदिमणुपालिय णिफिडिदस्स तेत्तीस सागरोवममेत्तणिरय भावुवलंभादो । एक जीवकी अपेक्षा कालानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १ ॥ शंका- यहां मूलौघ अर्थात् गतिसामान्यकी अपेक्षा प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान - नहीं की, क्योंकि, चारों गतियोंके प्ररूपणसे उसका ज्ञान हो ही जाता है। सूत्र में नरकगतिका निर्देश शेष गतियोंके निषेध करनेके लिये किया गया है। जीव कमसे कम दश हजार वर्ष तक नरकगतिमें रहता है || २ || क्योंकि, किसी तिर्येच या मनुष्यके दश हजार वर्षकी आयुस्थितिवाले नारकियों में उत्पन्न होकर वहांसे निकल आनेपर नरकमें दस हजार वर्षमात्रकी स्थिति पायी जाती है । जीव अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम काल तक नरकमें रहता है ॥ ३ ॥ किसी तिर्यच या मनुष्यके सातवीं पृथिवीमें तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिको बांधकर व वहां उत्पन्न होकर अपनी स्थिति पूरी करके निकल आनेपर तेतीस सागरोपममात्र नरकभाव पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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