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________________ छक्खंडागमे खुदाबंधी एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्जाणंतालंबणं । सेसं सुगमं । अनंता ॥ ५८ ॥ एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तं पि अनंतं परित्त जुत्ताणंताणंतएण तिविहं । तत्थेक्कस्सेव गहणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि - अणंताणंताहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण २६८ ] ॥ ५९ ॥ एदेण जहण्णअणंताणं तस्स पडिसेहो को, अदीदकालादो अनंतगुणस्स जहण्णअनंताणं तत्तविरोहादो । अजहण्णअणुक्कस्स - उक्कस्स अणंताणंताणं दोन्हं पि ग्रहणपसंगे तत्थेक्कस्सेव गहणमुत्तरमुत्तं भणदि [ २, ५, ५८.. खेत्ते अनंताणंता लोगा ॥ ६० ॥ एदेण उक्कस्सअणंताणंतस्स पडिसेहो कदो, अनंताणंत सच्चपज्जय पढमवग्गमूलस्स यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात और अनन्तका आलम्बन करनेवाला है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। उपर्युक्त प्रत्येक एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं ? ॥ ५८ ॥ इस सूत्र द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । वह अनन्त भी परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्तके भेदसे तीन प्रकार है । उनमें से एक ही ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं उपर्युक्त जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिणियों से अपहृत नहीं होते हैं ॥ ५९ ॥ इस सूत्र द्वारा जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अतीतकालसे अनन्तगुणे कालको जघन्य अनन्तानन्तत्वका विरोध है । अजघन्यानुत्कृष्ट और उत्कृष्ट अनन्तानन्त इन दोनोंके भी ग्रहणका प्रसंग होनेपर उनमें से एकके ही ग्रहणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त नौ प्रकारके एकेन्द्रिय जीव अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ६० ॥ Jain Education International इस सूत्र के द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अनन्तानन्त सर्व पर्यायोंके प्रथम वर्गमूलस्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्तको अनन्तानन्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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