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२, ५, ६३.] दवपमाणाणुगमे बीइंदियादीणं पमाणं
[२६९ उक्कस्सअणंताणंतस्स अणंताणंतलोगत्तविरोहादो । सेसं जीवट्ठाणभंगो।
बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपनत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ६१ ॥
सुगमं । असंखज्जा ॥ ६२॥
एदेण संखेज्जाणंतपडिसेहो कदो । तं पि असंखेज्ज परित्त-जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं । तत्थ दोण्हमवणयणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ६३॥
एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु तिसु असंखेज्जासंखेज्जओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमत्यित्तविरोहादो। अजहण्णुकस्सुक्कस्सअसंखेजाणं दोण्हं पि गहणप्पसंगे तत्थेक्कस्स अवणयणमुत्तरसुत्तं भणदि
लोकत्वका विरोध है । शेष प्ररूपणा जीवस्थानके समान है.।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और उन्हींके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ६१ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त द्वीन्द्रियादिक जीव द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ६२ ।।
इसके द्वारा संख्यात और अनन्तका प्रतिषेध किया गया है । वह असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेसे दोका निराकरण करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त द्वीन्द्रियादिक जीव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंसे अपहत होते हैं ॥ ६३ ॥
इस सूत्र द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इन तीनोंमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंके अस्तित्वका विरोध है। अजघन्यानुत्कृष्ट और उत्कृष्ट दोनों ही असंख्यातासंख्यातोंके ग्रहणका प्रसंग होनेपर उनमेंसे एकके निषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
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