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________________ २, ६, ९.] खेत्ताणुगमे मणुस्सखेत्तपरूवणं एत्थ लोगणिदेसो देसामासियो, तेण पंचण्डं लोगाणं गहणं होदि । एदेण मूचिदत्थस्स परूवणं कस्सामो । तं जहा-- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणद्विदतिविहा मणुसा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अच्छंति । कुदो ? मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुमणीणं संखेज्जजीवाणं खेत्तरगहणादो। सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तमणुसअपज्जत्ताणं सत्थाणखेत्तम्स गहणं किण्ण कीरदे ? ण, तस्स अंगुलस्स संखेज्जदिभागे संखेज्जंगुलेसु वा णिचियक्कमेण अवट्ठाणादो । उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? पहाणीकदमणुसअपज्जत्तउववादखेत्तादो । णवरि मणुसपज्जत्त-मणुसणीणमुववादखेत्तं चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । मणुसाणमुववादखेत्ताणयणविहाणं कुच्चदे । तं जहा- मणुस अपज्जत्तरासिमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालेण दोहि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेहि य ओवट्टिय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागोवट्टिदपदरंगुलेण गुणिदसेडीसत्तमभागेण गुणिदे उववादखेत्तं होदि । एत्थ पंचलोगोषणं जाणिय कायछ । सेसं सुगमं । __ सूत्र में लोकका निर्देश देशामर्शक है, इसलिये उससे पांचों लोकों का ग्रहण होता है। इस सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानमें स्थित तीन प्रकारके मनुष्य चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि यहां मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी, इन संख्यात जीवोंके क्षेत्रका ग्रहण है। शंका-जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र मनुष्य अपर्याप्तोंके स्वस्थानक्षेत्रका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता? । समाधान-नहीं, क्योंकि, मनुष्य अपर्याप्तराशिका अंगुलके संख्यातवें भागमें अथवा संख्यात अंगुलोंमें संचितक्रमसे अवस्थान है। उपपादको प्राप्त उक्त तीन प्रकारके मनुष्य तीन लोकों के असंख्यातचे भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां मनुष्य अपर्याप्तोंके उपपादक्षेत्रकी प्रधानता है। विशेषता यह है कि मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंका उपपादक्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है । मनुष्योंके उपपादक्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार हैमनुष्य अपर्याप्त राशिको आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालसे तथा पल्योपमके दो असंख्यात भागोंसे अपवर्तित करके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित प्रतरांगुलसे गुणित जगश्रेणीके सातवें भागसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्र होता है । यहां पांच लोकोंका अपवर्तन जानकर करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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