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________________ २, ७, १३.] फोसणाणुगमे तिरिक्खाणं फोसणं [ ३७५ एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । सत्थाणसस्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि तीदे काले सबलोगो फोसिदो । कुदो ? वट्टमाणे व सव्वलोगे अवट्ठाणुवलंभादो। विहारेण तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । असंखेज्जेसु समुद्देसु तसजीवविरहिएसु संतेसु कधं विहरंताणं तिरिक्खाणं तत्थ संभवो' ? ण, तत्थ पुव्यवइरियदेवाणं पओएण विहारे विरोहाभावादो। तीदे काले विहरंततिरिक्खेहि पुट्ठखेत्ताणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- लक्खजोयणबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय उड्डमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं खेत्तं होदि । जदि वि जोयणलक्खबाहल्लेण विणा संखेज्जजोयणबाहल्लं तिरियपदरं लब्भदि, तो वि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो चेव होदि । वेउब्वियसमुग्घादगदाणं वट्टमाणे खेत्तं, तीदे काले तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोहि लोगेहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? वाउकाइयजीवाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं विउव्वणखमाणं पंच इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- यहां वर्तमानकालप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदोंसे अतीत कालमें तिर्यंच जीवों द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, वर्तमान कालके समान अतीत कालमें भी तिर्यंच जीवोंका सर्व लोकमें अवस्थान पाया जाता है। विहारकी अपेक्षा अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। __ शंका- असंख्यात समुद्रोंके त्रस जीवोंसे रहित होनेपर वहां विहार करनेवाले प्रस जीवोंकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान नहीं, क्योंकि, वहां पूर्व वैरी देवोंके प्रयोगसे विहार होने में कोई विरोध नहीं है। अतीत कालमें विहार करनेवाले तिर्यंचोंसे स्पृष्ट क्षेत्रके निकालनेका विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है- एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतरको स्थापित कर ऊपरसे उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र क्षेत्र होता है। यद्यपि एक लाख योजन बाहल्यके विना संख्यात योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतर प्राप्त होता है, तथापि तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग ही होता है। वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त तियेच जीवोंकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। किन्तु अतीत कालकी अपेक्षा तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और दो लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि, विक्रिया करने में समर्थ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण वायु १ प्रतिषु 'संभवादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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