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________________ १२२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२,२,१३. वड्डिया ण होति त्ति कधं णव्वदे? ण, आइरियपरंपरागदुवदेसादो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १३ ॥ (सुगममेदं।) जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहत्तं ॥ १४ ॥ पंचिंदियतिरिक्खाणं खुद्दाभवग्गहणं, तत्थ अपज्जत्ताणं संभवादो । सेसेसु अंतोगुहुत्तं, तत्थ अपज्जत्ताणमभावादो । ण च पज्जत्तेसु जहण्णाउढिदिपमाणं खुद्दाभवग्गहणं होदि, अंतोमुहुत्तुवदेसस्स एदस्स अणत्थयत्तप्पसंगादो। उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ॥१५॥ शंका-- असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंका तात्पर्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र वारसे ही है, अधिक नहीं, यह कैसे जाना जाता है ? । समाधान-आचार्य परम्परागत उपदेशसे । जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १३ ॥ ( यह सूत्र सुगम है।) कमसे कम क्षुद्रग्रहणकाल व अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती होते हैं ॥ १४ ॥ क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यचौका कमसे कम काल क्षुद्रभवग्रहणमात्र है, कारण कि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में अपर्याप्त जीवोंका होना भी संभव है । शेष तिर्यंचोंका काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्त नहीं होते। पर्याप्तक जीवोंमें जघन्यायुस्थितिका प्रमाण क्षुद्रभवग्रहणकाल मात्र नहीं होता, अर्थात् उससे अधिक होता है, क्योंकि, यदि पर्याप्तकोका जघन्य आयुप्रमाण भी क्षुद्रभवग्रहणकाल मात्र होता तो प्रस्तुत सूत्र में अन्तर्मुहूर्त कालके उपदेशके निरर्थक होनेका प्रसंग आजाता। अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपमप्रमाण काल तक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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