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________________ २, २, १२. ] एगजीवेण कालानुगमे तिरिखकालपरूवणं क्कस्साउअं च समयाहियं बावीस तेत्तीस सागरोवमाणि २२ । २३ । तिरिक्खगदी तिरिक्खो केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १० ॥ सुगममेदं । जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११ ॥ मणुस्सेर्हितो आगंतूण तिरिक्खअपज्जत्ते सुप्पज्जिय तत्थ जहण्णाउट्ठिदि मच्छिय गिफिडिदूण गदस्स खुद्दा भवग्गहणमेत्तजहण्णकालुवलं मादो । उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ १२ ॥ अप्पिदगदीहिंतो आगंतूण तिरिक्खेसुप्पज्जिय आवलियाए असंखेज्जदिभागतपोग्गल परियट्टे तिरिक्खेसु परियट्टिदूण अण्णगदिं गदस्स सुत्तुत्तकालुवलंभादो । असंखेज्जपोग्गलपरियट्टेत्ति वुत्ते आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होंति । [ १२१ एक समय अधिक बाईस सागरोपम तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम है । २२ । ३३ । तिर्यंचगतिमें तिर्यच जीव कितने काल तक रहता है १ ।। १० । यह सूत्र सुगम I तियंचगतिमें तिर्यच जीव कमसे कम एक क्षुद्रभवग्रहण काल तक रहता है ॥ ११ ॥ क्योंकि, मनुष्यगतिसे आकर तिर्यच अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर वहां जघन्य आयुस्थितिमात्र काल रहकर वहांसे निकलनेवाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र जघन्य काल पाया जाता है । तिर्यंचगतिमें जीव अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक रहता है ॥ १२ ॥ क्योंकि, अविवक्षित गतियोंसे आकर तिर्यचों में उत्पन्न होकर और आवलीके असंख्यातवें भागमात्र वार पुगलपरिवर्तन काल तक तिर्यचोंमें परिभ्रमण करके अन्य - गतिमें जानेवाले जीवके सूत्रोक्त असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल पाया जाता है । असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कहने का तात्पर्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र वारसे है । १ छत्तीस तिणि सया छावद्विसहस्सवारमरणाणि । अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तो सि णिगोयवासम्म || वियलिदिए असीदी सट्ठी चालीसमेत्र जाणेह | पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवतोमुहुत्तस्स || भावप्राभृत २८-२९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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