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________________ [१५ २, १, ८.] बंधगसंतपरूवणाए इंदियमग्गणा जस्सोदएण जीवो अणुसमयं मरदि जीवदि वराओ । तस्सोदयक्खएण दु भव-मरणविवज्जियो होइ ॥ ८॥ अंगोवंग-सरीरिंदिय-मणुस्सासजोगणिप्फत्ती । जस्सोदएण सिद्धो तण्णामखएण असरीरो ॥९॥ उच्चुच्च उच्च तह उच्चणीच णीचुच्च णीच णीचं च। जस्सोदएण भावो णीचुच्चविवज्जिदो तस्स ॥१०॥ विरियोवभोग-भोगे दाणे लाभे जदुदयदो विग्धं । पंचविहलद्धिजुत्तो तक्कम्मखया हवे सिद्धो ॥ ११ ॥ जयमंगलभूदाणं विमलाणं णाण-दसणमयाणं । तेलोक्कसेहराणं णमो सिया सव्वसिद्धाणं ॥ १२ ॥ इंदियाणुवादेण एइंदिया बंधा वीइंदिया बंधा तीइंदिया बंधा चदुरिंदिया बंधा ॥ ८॥ कुदो ? एदेसु मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणमण्णयं मोत्तूण वदिरेगाभावा। जिस आयु कर्मके उदयसे बेचारा जीव प्रतिसमय मरता और जीता है, उसी कर्मके उदयक्षयसे वह जीव जन्म और मरणसे रहित हो जाता है ॥ ८॥ जिस नाम कर्मके उदयसे अंगोपांग, शरीर, इन्द्रिय,मन और उच्छ्वासके योग्य निष्पत्ति होती है, उसी नाम कर्मके क्षयसे सिद्ध अशरीरी होते हैं ॥९॥ जिस गोत्र कर्मके उदयसे जीव उच्चोच्च, उच्च, उच्चनीच, नीचोच्च,नीच या नीचनीच भावको प्राप्त होता है, उसी गोत्र कर्म के क्षयले वह जीव नीच और ऊंच भावोंसे मुक्त होता है ॥ १०॥ जिस अन्तराय कर्मके उदयसे जीवके वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभमें विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्मके क्षयसे सिद्ध पंचविध लब्धिसे संयुक्त होते हैं॥११॥ जो जगमें मंगलभूत हैं, विमल हैं, ज्ञान-दर्शनमय हैं, और त्रैलोक्यके शेखर रूप हैं ऐसे समस्त सिद्धोंको मेरा नमस्कार हो ॥ १२॥ इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय जीव बन्धक हैं, द्वीन्द्रिय बन्धक हैं, त्रीन्द्रिय बन्धक हैं और चतुरिन्द्रिय बन्धक हैं ॥ ८॥ क्योंकि, उक्त जीवोंमें (कर्मबन्धके कारणभूत ) मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग, इनके अन्वयको छोड़कर व्यतिरेकका अभाव है, अर्थात् उन जीवोंमें बन्धके कारणोंका सद्भाव ही पाया जाता है, असद्भाव नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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