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१५ छक्खडागमे खुदाबंधी
[२, १, ७. पडिवक्खा सम्मत्तुप्पत्ती-देससंजम-संजम-अणंताणुबंधिविसंजोयण-दंसणमोहक्खवणचरितमोहुवसामणुवसंतकसाय-चरित्तमोहक्खत्रण-खीणकसाय-सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्खपच्चया, एदेहितो समयं पडि असंखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलं भादो। जे पुण पारिणामियभावा जीव-भव्या भव्यादओ, ण ते बंध-मोक्खाणं कारणं, तेहितो तदणुवलंभा ।
एदस्स कम्मस्स खएण सिद्धाणमेसो गुणो समुप्पणो त्ति जाणावणट्ठमेदाओ गाहाओ एत्थ परूविज्जति
दव्व-गुण-पज्जए जे जस्सुदएण य ण जाणदे जीवो । तस्स क्खएण सो च्चिय जाणदि सव्वं तयं जुगवं ॥ ४ ॥ दव्व-गुण-पज्जए जे जस्सुदएण य ण पस्सदे जीवो । तस्स क्खएण सो च्चिय पस्सदि सव्वं तयं जुगवं ॥५॥ जस्सोदएण जीवो सुहं व दुक्खं व दुविहमणुहवइ । तस्सोदयक्खएण दु जायदि अप्पत्थणंतसुहो ॥ ६ ॥ मिच्छत्त-कसायासंजमेहि जस्सोदएण परिणमइ । जीवो तस्सेब खया त्तविबरीदे गुणे लहइ ।। ७ ॥
संयम, अनन्तानुबन्धिविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशान्तकषाय, चारित्रमोहक्षपण, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली, ये परिणाम मोक्षके कारणभूत हैं, क्योंकि, इन्हीं के द्वारा प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मोंकी निर्जरा पायी जाती है। किन्तु जीव, भव्य,अभव्य आदि जो पारिणामिक भाव हैं, वे बन्ध और मोक्ष दोनोंमेंसे किसीके भी कारण नहीं हैं, क्योंकि उनके द्वारा बन्ध या मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती।
'इस कर्मके क्षयसे सिद्धोंके यह गुण उत्पन्न हुआ है ' इस बात का शान कराने के लिये ये गाथायें यहां प्ररूपित की जाती हैं -
जिस ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय, इन तीनोंको नहीं जानता, उसी ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे वही जीव उन सभी तीनोंको एक साथ जानने लगता है ॥ ४॥
जिस दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय, इन तीनोंको नहीं देखता है, उसी दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे वही जीव उन सभी तीनोंको एक साथ देखने लगता है ॥५॥
जिस वेदनीय कर्मके उदयसे जीव सुख और दुःख इस दो प्रकारको अवस्थाका भनुभव करता है, उसी कर्मके क्षयसे आत्मस्थ अनंतसुख उत्पन्न होता है ॥ ६ ॥
जिस मोहनीय कर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्व, कषाय और असंयम रूपसे परिणमन करता है, उसी मोहनीयके क्षयसे इनके विपरीत गुणोंको प्राप्त करता है ॥७॥
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