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२९६ ) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ५, १६१. अव्वए' संते अयोच्छिज्जमाणस्स अणंतववएमो? ण, अणंतस्स केवलणाणस्स चेव विसए अवहिदाणं संखाणमुवयारेण अणंतत्तविरोहाभावादो ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्मादिट्ठी उवसमसम्मादिट्टी सासणसम्माइट्टी सम्मामिच्छाइट्ठी दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १६१॥
सुगमं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६२ ॥
एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो, उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स वि । अणिच्छिदअसंखेज्जपडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहत्तेण ॥ १६३ ॥ एत्थ सम्मादिट्ठी-वेदगसम्मादिट्ठीणमवहारकालो आवलियाए असंखज्जदिभागो
'अनन्त' यह संक्षा कैसे सम्भव है ?
__ समाधान-नहीं, क्योंकि, अनन्तरूप केवलज्ञानके ही विषयमें अवस्थित संख्याओंके उपचारसे अनन्तपना मानने में कोई विरोध नहीं आता।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सभ्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १६१ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १६२॥
इस सूत्रके द्वारा संख्यात और अनन्तका तथा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है । अनिच्छित असंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
उक्त जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है ॥ १६३ ॥ यहां सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें
१ प्रतिषु — ववए ' इति पाठ : ।
२ अप्रतौ वाच्छिण्णस्स माणस्स', आप्रती । वोछिब्जमाणस्स', काप्रतौ । वोछिज्जस्स माणस्स' मप्रतौ ' वोच्छिज्जमाण्णस्स माणस्स ' इति पाठ ।
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