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२, ५, १६०.] दव्यपमाणाणुगमे अभवसिद्धियाणं पमाणं
(२९५ एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्णअणंताणतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताणंतोसप्पिणि-उस्मप्पिणीणमभावादो । अणवहरणं पि अदीदकालग्गहणादो । सेसं सुगमं । अणिच्छिदाणताणतपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण अणंताणंता लोगा॥ १५८ ॥
एदेण उक्कस्सअणताणंतस्स पडिसेहो कदो, अर्णताणताणि सव्वपज्जयपढमवग्गमूलाणि त्ति अभणिय अणंताणंतलोगवयणादो । सेसं सुगम ।
अभवसिद्धिया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १५९ ॥ सुगमं। अणंता ॥ १६०॥ जहण्णजुत्ताणंतमिदि घेत्तव्यं । कुदो ? आइरियपरंपरागयउवदेसादो । कथं एदस्स
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इस सूत्रके द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमे अनन्तानन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अपहृत न होनेका कारण भी यह है कि यहां अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे केवल अतीत कालका ग्रहण किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । अनिच्छित अनन्तानन्तके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
भव्यसिद्धिक जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ १५८ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, 'सर्व पर्यायोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण अनन्तानन्त' ऐसा न कहकर अनन्तानन्त लोकोंका कथन किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
अभव्यसिद्धिक द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १५९ ॥ यह सूत्र सुगम है। अभव्य सिद्धिक द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १६० ॥
यहां अनन्तसे 'युक्तानन्त' ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इस प्रकार आचार्यपरम्परागत उपदेश है ।
शंका-व्ययके न होनेसे व्युच्छित्तिको प्राप्त न होनेवाली अभव्यराशिके
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