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२, ५, १६७. ]
दव्यमाणागमे सण्ण असण्णीणं प्रमाणं
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त्ति घेत्तव्त्रो। कुदो ? सुत्ताविरुद्धगुरूवदेसादो । खइयसम्माइडीणं पुण संखज्जावलियाओ, अवसे साणमसंखेज्जावलियाओ त्ति घेत्तव्यं । सेसं सुगमं ।
मिच्छारट्टी असंजदभंगो ॥ १६४ ॥
कुदो ? दव्चट्ठियणयावलंबणे दोहं रासीणं भेदाणुवलंभादो | सणियाणुवादेण सण्णी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १६५ ॥ सुमं ।
देवेहि सादिरेयं ॥ १६६ ॥ .
कुदो ? देवा सच्चे सणणो, तत्थ णेरइय- मणुस्सरासिमसंखेज्जसेडिमेतं पुणो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततिरिक्खसण्णिरासिं च पक्खित्ते सयलसण्णीणं पमाणुपत्तदो । सेसं सुगमं ।
असण्णी असंजदभंगो ॥ १६७ ॥
एदं पि सुगमं ।
भागमात्र ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा सूत्रसे अविरुद्ध गुरूपदेश है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल संख्यात आवली तथा शेष उपशमसम्यग्दृष्टि आदि तीनका अवहारकाल असंख्यात आवलीप्रमाण ग्रहण करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम हैं ।
मिथ्यादृष्टियों का द्रव्यप्रमाण असंयत जीवोंके समान है ॥ १६४ ॥
क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर मिथ्यादृष्टि और असंयत इन दोनों राशियों में कोई भेद नहीं है ।
संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १६५ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
संज्ञी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देवोंसे कुछ अधिक हैं ।। १६६ ।।
क्योंकि, देव सब संज्ञी हैं; उनमें असंख्यात श्रेणिमात्र नारक और मनुष्य राशिको तथा जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण तिर्यच संज्ञिराशिको मिलानेपर समस्त संशियोंका प्रमाण उत्पन्न होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
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असंज्ञी जीवोंका प्रमाण असंयतों के समान है ॥ १६७॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
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