SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २, २, ७.) एगजीवेण कालाणुगमे गैरइयकालपरूवर्ण [११७ मुह-भूमीण विसेसो उच्छयभजिदो दु जो हवे वड्डी । बड्डी इच्छागुणिदा मुहसहिया होइ वड्डिफलं ॥ १ ॥ .. पुणो एवमाणिदवढेि दससु ठाणेसु ठविय एगादिएगुत्तरसलागाहि गुणिय मुहपक्खेवे कदे इच्छिद-इच्छिदपत्थडाणमाउअं होदि । तस्स पमाणमेदं ।। २ ।। स ।१।। एसो अत्यो सुत्ते अवुत्तो कधं णव्वदे ? किमिदि ण वुत्तो, वुत्तो चेव देसामासियभावेण । एदं सुत्तं देसामासियमिदि कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो । विदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७॥ मुख और भूमिका जो विशेष अर्थात् अन्तर हो उसे उत्सेधसे भाजित करदेनेपर जो वृद्धिका प्रमाण आता है, उस वृद्धिको अभीष्टसे गुणा करके मुखमें जोड़नेपर वृद्धिका फल प्राप्त हो जाता है ॥ १॥ पुनः इस प्रकार लाये हुए वृद्धिके प्रमाणको दश स्थानोंमें स्थापित कर एकादि उत्तरोत्तर बढ़ती हुई शलाकाओंसे गुणितकर लब्धको मुखमें मिला देनेसे प्रत्येक अभीष्ट पाथड़ेका आयुप्रमाण निकल आता है । इस प्रकार निकाला हुआ चतुर्थ आदि पाथड़ोंका आयुप्रमाण निम्न प्रकार है - | आयुप्र. ३ ३ ३ १ । शंका-ऐसा अर्थ सूत्रमें तो कहा नहीं गया, फिर वह कहांसे जाना जाता है ? समाधान--कैसे नहीं कहा गया ? देशामर्शक भावसे कहा तो गया है। शंका-प्रस्तुत सूत्र देशामर्शक है यह कैसे जान लिया ? समाधान-गुरुजीके उपदेशसे हमने जाना कि प्रस्तुत सूत्र देशामर्शक है । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नरकोंमें नारकी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७॥ १ प्रतिषु — आधचतुर्पु कोष्ठेषु | ।।२।।' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy