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________________ २, ३, १६.1 एगजीवेण अंतराणुगमे भवणवासियादिदेवाणमंतरं [१९१ कुदो ? देवगदीदो ओयरिय सेसतिसु गदीसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टे उक्कस्सेण परियट्टिदूण पुणो देवगदीए आगमणे विरोहाभावादो । भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिय-सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवा देवगदिभंगो ॥१४॥ ___जधा देवगदीए जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण असंखेज्जपोग्गलपरियट्टमेतं अंतरं वुत्तं तधा एदेसि पि जहण्णुक्कस्संतराणि । देवा इदि वुत्ते देवाणमिदि घेत्तव्यं, 'आई-मज्झंतवण्णसरलोओ' त्ति एदेण लक्खणेण लुत्त-ण-सद्दादो। सणक्कुमार-माहिंदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१५॥ सुगमं । जहण्णेण मुहत्तपुधत्तं ॥ १६ ॥ क्योंकि, देवगतिसे उतरकर शेष तीन गतियोंमें अधिकसे अधिक आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः देवगतिमें आगमन करने में कोई विरोध नहीं आता। भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी व सौधर्म-ईशान कल्पवासी देवोंका अन्तर देवगतिके समान ही है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार देवगतिसे कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र और अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तरकाल कहा गया है, उसी प्रकार इन भवनवासी आदि देवोंका जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये । 'देवा' ऐसा प्रथमान्त पद कहनेसे 'देवोंका' ऐसे षष्ठयन्त पदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि “ आदि, मध्य व अन्त व्यंजन और स्वरका प्राकृतमें विकल्पसे लोप हो जाता है" इस नियमसे यहां षष्ठी विभक्तिके सूचक ‘णं' शब्दका लोप हो गया है। ____ सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१५॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम मुहूर्तपृथक्त्व काल तक सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ १६ ॥ १ अप्रतौ होति' इति पाउः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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