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________________ २, ७, १२७. ] ॥ १२४ ॥ उववादं णत्थि ॥ १२३ ॥ कुदो ? अच्चताभावेण ओसारिदत्तादो । आहार मिस्स कायजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? फोसणा गमे कायजोगीणं फोसणं लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १२५ ॥ एत्थ वट्टमाणस्स खेत्तभंगो | अदीदेण चदुष्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणं णत्थि । समुग्धाद उववादं णत्थि ॥ १२६ ॥ कुदो ? अच्चंताभावेण ओसारिदत्तादो । कम्मइयकायजोगीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १२७ ॥ ॥ १२४ ॥ [ ४१९ आहारककाययोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ।। १२३ ।। क्योंकि, वह अत्यन्ताभावसे निराकृत है आहारकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ! यह सूत्र सुगम है 1 आहारक मिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ।। १२५ ।। यहां वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । अतीत कालकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागका स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान उनके होता नहीं है । Jain Education International आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समुद्घात और उपपाद पद नहीं होते ।। १२६ ॥ क्योंकि, वे अत्यन्ताभाव से निराकृत हैं । कार्मणकाय योगी जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ।। १२७ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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