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२, ८, ५५.] जाणाजीवेग कालाणुगमै आहारमग्गणा
[४७७ बिदियसमए मिच्छत्तं गदस्स एगसमयदसणादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥५१॥ सुगममेदं, सम्मामिच्छत्तकालसमासविहाणेण एदस्स कालस्स समुप्पत्तीदो ।
सणियाणुवादेण सण्णी असण्णी केवचिरं कालादो होति ? ॥५२॥
सुगमं । सव्वद्धा ॥ ५३॥ सुगम । आहारा अणाहारा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ५४ ॥ सुगमं । सव्वद्धा ॥ ५५॥ सुगमं ।
एवं णाणाजीवेण कालाणुगमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
प्राप्त होकर और एक समय रहकर द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर एक समय जघन्य काल देखा जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात. भागमात्र काल तक रहते हैं ॥५१॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, सम्यग्मिध्यात्वकालके संकलनका जो विधान कहा जा चुका है उसीसे इस कालकी भी उत्पत्ति होती है।
संज्ञिमार्गणाके अनुसार संज्ञी और असंज्ञी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ५२॥
यह सूत्र सुगम है। संज्ञी और असंज्ञी जीव सर्व काल रहते हैं ।। ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारक व अनाहारक जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥५४ ।। यह सूत्र सुगम है। आहारक व अनाहारक जीव सर्व काल रहते हैं ॥ ५५ ॥ यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार नाना जीधोंकी अपेक्षा कालानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुभा
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