SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 560
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २, ११, २७. 1 अप्पाबहुगाणुगमे इंदियमग्गणा [ ५२७ कुदो ? विस्ससादो । एत्थ विसेसपमाणं बीइंदियपज्जत्ताणमसंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । पंचिंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥ २६ ॥ कुदो ? पावाहियाणं जीवाणं बहूणं संभवादो । एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखज्जदिभागो। कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदअविरुद्धवदेसादो । पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण जगपदरे भागे हिदे तीइंदियपज्जत्तपमाणं होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे पदरंगुलस्स असंखज्जदिभागेणोवट्टिदजगपदरपमाणं पंचिंदियअपज्जत्तदव्वं होदि । चउरिंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया ॥ २७ ॥ कुदो ? पावेण विणट्ठसोइंदियाणं बहूणं संभवादो । एत्थ विसेसपमाणं फ्योंकि, ऐसा स्वभावसे है। यहां विशेषका प्रणाण द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका .. असंख्यातवां भाग है। शंका-उनका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-आवलीका असंख्यातवां भाग उनका प्रतिभाग है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तोंसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ २६ ॥ क्योंकि, पापप्रचुर जीवोंकी सम्भावना बहुत है। यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-यह आचार्यपरम्परागत अविरूद्ध उपदेशसे जाना जाता है। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे जगप्रतरके भाजित करनेपर त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित जगप्रतरप्रमाण पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका द्रव्य होता है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं ॥ २७ ॥ क्योंकि, पापसे नष्ट है श्रोत्र इन्द्रिय जिनकी ऐसे जीव बहुत सम्भव हैं। यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy