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________________ २, १, ५६. ] सामित्तागमे दंसणमग्गणा [ १०१ को सो परमत्थत्थो ? बुच्चदे- जं यत् चक्खूणं चक्षुषां पयासदि प्रकाशते दिस्सदि चक्षुषा दृश्यते वा तं तत् चक्खुदंसणं चक्षुर्द्दर्शनमिति वेंति ब्रुवते । चक्खिदियणाणादो जो पुव्यमेव सुवसत्तीए सामण्णाए अणुहओ चक्खुणाणुष्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्त होदि । कधमंतरंगाए चक्खिदियविसय पडिबद्धाए सत्तीए चक्खिदियस्स पत्ती ? ण, अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणङ्कं चक्खूणं जं दिस्सदि तं चक्खु - दंसणमिदि परूवणादो । गाहाए गलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो किण्ण घेप्पदि । ण, तत्थ पुत्तासेस दोसपसंगादो । दिवस शेषेन्द्रियैः प्रतिपन्नस्यार्थस्य जं यस्मात् सरणं अवगमनं णायव्वं ज्ञातव्यं तं तत् अचक्खु ति अचक्षुर्दर्शनमिति । सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणी विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुपत्तिणिमित्तो तमचवखुदंसणमिदि उत्तं होदि । शंका- वह परमार्थ कौनसा है ? समाधान - कहते हैं । 'जो चक्षुओंको प्रकाशित होता है अर्थात् दिखता है, अथवा आंख द्वारा देखा जाता है वह चक्षुदर्शन है' इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिये कि चक्षुइन्द्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है, जो कि चक्षुज्ञानकी उत्पत्ति में निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है । शंका-उस चक्षुइन्द्रियके विषयसे प्रतिबद्ध अंतरंग शक्ति में चक्षुइन्द्रियकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान – नहीं, यथार्थमें तो चक्षुइन्द्रियकी अन्तरंगमें ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु बालक जनोंको ज्ञान करानेके लिये अंतरंगमें बहिरंग पदार्थोंके उपचारसे चक्षुओंको जो दिखता है वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है । शंका- गाथाका गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ? समाधान -- नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें तो पूर्वोक्त समस्त दोषोंका प्रसंग आता है । गाथाके उत्तरार्धका अर्थ इस प्रकार है ' जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इन्द्रियोंके द्वारा जाना गया है, उससे जो सरण अर्थात् ज्ञान होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिये' । चक्षुइन्द्रियको छोड़ शेष इन्द्रियज्ञानोंकी उत्पत्तिसे पूर्व ही अपने विषयमें प्रतिबद्ध स्वशक्तिका अचक्षुज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत जो सामान्यसे संवेद या अनुभव होता है वह अचक्षुदर्शन है, ऐसा कहा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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