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________________ २, ५, २१.] दव्वपमाणाणुगमे पंचिंदियतिरिक्खादीणं पमाणं ( २५३ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । एदेण चेव जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जस्स वि पडिसेहो कदो । कुदो ? तत्थ वि असंखेज्जासंखेज्जाणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । अवसेसेसु दोसु असंखेज्जासंखेज्जेसु कम्मि असंखेज्जासंखेज्जे इमं होदि त्ति जाणावणढमुत्तरसुत्तं भणदि खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणेण कालेण संखेज्जगुणहीणेण कालेण संखेज्जगुणेण कालेण असंखेज्जगुणहीणेण कालेण ॥२१॥ बेछप्पणंगुलसदवग्गपमाणदेवअवहारकालमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे पंचिंदियतिरिक्खाणं अवहारकालो होदि । तम्हि चेव देवअवहारकाले तपाओग्गसंखेज्जरूवेहि भागे हिदे पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । सो पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । देवावहारकाले संखेज्जरूवेहि गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खजोगिणीणमवहारकालो होदि। देवअवहारकाले आवलियाए असंखेन्जदिभाएण भागे क्योंकि, उन दोनों में असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। इसीसे ही जघन्य असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, जघन्य असंख्यातासंख्यातमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अवशेष दो असंख्यातासंख्यातों से किस असंख्यातासंख्यातमें उक्त तिर्यंच जीव हैं, इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र कहते है - क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तियंच अपर्याप्त जीवोंके द्वारा क्रमशः देवअवहारकालसे असंख्यातगुणे हीन कालसे, संख्यातगुणे हीन कालसे, संख्यातगुणे कालसे और असंख्यातगुणे हीन कालसे जगप्रतर अपहृत होता है ।। २१ ॥ दो सौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गप्रमाण देवअवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करनेपर पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका अवहारकाल होता है। उसी देवअवहारकालको तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे भाजित करनेपर प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग आता है । वह पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । देववहारकालको संख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती जीवोंका अवहारकाल होता है। देववहारकालमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर प्रतरां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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