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________________ २५४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ५. २२. हिदे पदरंगुलस्स असंखेन्जदिभागो आगच्छदि । सो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । एदे अवहारकाले जहाकमेण सलागभूदे ह्रविय पंचिंदियतिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खपजत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तपमाणेण जगपदरे अवहिरिज्जमाणे सलागाओ जगपदरं च जुगवं समप्पंति । तत्थ एगवारमवहिरिदपमाणं जहाकमेण पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता' च होंति त्ति वुत्तं होदि । एदेण एदेसि जगपदरस्स असंखेज्जदिभागत्तपरूवएण सुत्तण उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो। ण च तव्यदिरित्तस्स असंखेज्जासंखेज्जस्स सव्वस्स गहणं, तत्थतणसव्ववियप्पाणं पडिसेहं काऊण तत्थेक्कवियप्पस्सेव णिण्णयसरूवेण परूविदत्तादो । मणुसगदीए मणुस्सा मणुसअपज्जत्ता दवपमाणेण केवडिया ? ॥२२॥ एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्ज-अणंतावेक्खं । सेसं सुगमं । असंखेज्जा ॥२३॥ गुलका असंख्यातवां भाग आता है । वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवोंका अवहार काल होता है । इन अवहारकालोंको यथाक्रमसे शलाकाभूत स्थापित कर पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोके प्रमाणसे जगप्रतरके अपहृत करनेपर शलाकायें और जगप्रतर एक साथ समाप्त होते हैं। उनमें एक वार अपहृत प्रमाण यथाक्रमसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीव होते हैं, यह उक्त कथनका अभिप्राय है । इन जीवोंके जगप्रतरके असंख्यातवें भागत्वका प्ररूपण करनेवाले इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है । और तद्व्यतिरिक्त असंख्यातासंख्यातका भी सबका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, उसके सब विकल्पोंका प्रतिषेध करके उनमेंसे एक विकल्पका ही निर्णयस्वरूपसे निरूपण किया गया है। मनुष्यगतिमें मनुष्य और मनुष्य अपर्याप्त द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। २२ ॥ यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात व अनन्तकी अपेक्षा रखता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। ___ मनुष्य और मनुष्य अपर्याप्त द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ॥ २३ ॥ . १ प्रतिषु ' -तिरिक्खा अपज्जता ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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