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२, ७, १९. 1 फोसणाणुगमे मणुस्साणं फोसणं गुलुस्सेहो लब्भदे ? ण, मुदपंचिंदियादितसकाइयाणं कलेवरेसु अंगुलस्स संखेज्जदिभागमादि काऊण जाव संखेज्जजोयणा त्ति कमबड्डीए द्विदेसु उप्पज्जमाणाणमपज्जत्ताणं संखेज्जंगुलुस्सेहुबलभादो । अधवा सव्वेसु दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होति । कुदो ? पुरवइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपीडभागुप्पण्णपंचिंदियतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालियदेहाणं सव्वदीव-समुद्देसु अबढाणदंसणादो । मारणंतिय-उववादेहि पुण सबलोगो फोसिदो । कुदो ? मारणंतिय-उववादाणं सबलोगे पडिसेहाभावादो।
मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणीओ सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १८ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १९ ॥
संख्यात अंगुलप्रमाण उत्सेध कैसे पाया जाता है ?
समाधान नहीं. क्योंकि, अंगुलके संख्यातवें भागको आदि लेकर संख्यात योजन तक क्रमवृद्धिसे स्थित मृत पंचेन्द्रियादि प्रसकायिक जीवोंके शरीरों में उत्पन्न होनेवाले अपर्याप्तोंका संख्यात अंगुलप्रमाण उत्सेध पाया जाता है । अथवा, सभी द्वीपसमुद्रोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव होते है, क्योंकि, पूर्वके वैरी देवोंके सम्बन्धसे एक बन्धनमें बद्ध छह जीवनिकायोंसे व्याप्त औदारिक शरीरको धारण करनेवाले कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा जाता है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुदघात व उपपाद पदोसे परिणत उक्त जीवोंका सब लोकमें प्रतिषेध नहीं है।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनियों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ १८ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त तीन प्रकारके मनुष्यों द्वारा स्वस्थानसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १९॥
१ अआप्रयोः 'जायण त्ति' इति पाठः।
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