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________________ ३७८ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो [ २, ७, १७. तीदकाले सव्वलोगो फोसिदो । लोगणालीए चाहिं तसकाइयाणं सव्वकालसंभवाभावादो सव्वलोगो त्ति वयणं ण जुज्जदे । ण एस दोसो, मारणंतिय उववाद परिणयतसजीव मोनू सेस साणं वाहिमत्थित्तपडिसेहादो | पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । संपदि तीदकालपरूवणं कस्सामो । तं जहा - सत्थाणसत्थाणवेयण-कसायपदपरिणएहि पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? कम्मभूमिपडिभागे सयंपहपव्वयं परभागे अड्डाइजदीव - समुद्देसु च अदीदकाले तत्थ सव्वत्थ संभवादो | तेण तेहि फोसिदखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो | तस्साणयणविहाणं वुच्चदे – सर्वपहपव्त्रदभंतर खेत्तं जगपदरस्स संखेज्जदिभागो । तं रज्जुपदरम्मि अवणिदे सेसं जगपदरस्स संखेज्जदिभागो । तं संखेज्जसूचिअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । अपज्जत्ताण मंगुलस्सा संखेज्जदिभागोगाहणाणं कथं संखेज्जं - अतीत काल में सर्व लोक स्पृष्ट है । शंका- लोकनाली के बाहिर सर्वदा कालमें सकायिक जीवोंकी सर्वदा सम्भावना न होने से ' सर्व लोक स्पृष्ट है ' यह कहना योग्य नहीं है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्घात व उपपाद पदोंसे परिणत त्रस जीवोंको छोड़कर शेष त्रस जीवोंके अस्तित्वका लोकनालीके बाहिर प्रतिषेध है । पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीवोंकी वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्र के समान है । इस समय अतीत कालकी अपेक्षा प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंसे परिणत पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि कर्मभूमिप्रतिभागरूप स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें और अढ़ाई द्वीप समुद्रों में अतीत कालकी अपेक्षा वहां उनकी सर्वत्र सम्भावना है। इसीलिये उनके द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । उसके निकालने के विधानको कहते हैं- स्वयंप्रभ पर्वतका अभ्यन्तर क्षेत्र जगप्रतरके संख्यातवें भागप्रमाण है। उसे राजुप्रतर मैंसे कम करनेपर शेष जगप्रतर के संख्यातवें भागप्रमाण रहता है । उसे संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणित करने पर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है । शंका - अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाले अपर्याप्त जीवोंका १ प्रतिषु ' पज्जय' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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