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________________ २३०) छक्खंडागमै खुदाबंधी [२, ३, १३०. कुदो ? तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साहितो अविरुद्धमण्णलेस्सं गंतूण जहण्णकालेण पडिणियत्तिय अप्पप्पणो लेस्साणमागदस्स जहणतरुवलंभादो । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १३० ॥ कुदो ? अप्पिदलेस्सादो अविरुद्धाणप्पिदलेस्साणं गंतूण अंतरियावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टेसु किण्ण-गील काउलेस्साहि अदिक्कतेसु अप्पिदलेस्समागदस्स सुत्तुक्कस्संतरुवलंभादो । भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३१ ॥ सुगमं । णथि अंतरं णिरंतरं ॥ १३२ ॥ कुदो ? भवियाणम भवियाणं च अण्णोण्णसरूवेण परिणामाभावादो। . दा। क्योंकि, तेज, पन व शुक्ल लेश्यासे अपनी अविरोधी अन्य लेश्यामें जाकर व जघन्य कालसे लौटकर पुनः अपनी अपनी पूर्व लेश्याम आनेवाले जीवके अन्तर्मुहर्तमात्र जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है। तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल होता है ॥ १३० ॥ क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे अविरुद्ध अविवक्षित लेश्याओंको प्राप्त हो अन्तरको प्राप्त हुआ । पुनः आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनोंके कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंके साथ वीतनेपर विवक्षित लेश्याको प्राप्त हुए जीवके उक्त लेश्याओंका सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। भव्यमार्गणानुसार भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३१ ॥ यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर हैं ॥१३२।। क्योकि, भव्य और भभव्य जीवोंका अन्योन्यस्वरूपसे परिणमनका अभाव है, अर्थात् भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकता और अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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