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________________ २, ३, १३५ ] एग जीवेण अंतराणुगमे सम्माइट्ठिआदीणमंतरं [ २३१ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्टि वेदगसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठिः सम्मामिच्छाइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१३३॥ सुगमं । जहण्णेणंतोमुहुत्तं ॥ १३४ ॥ कुदो ? सम्माइटिस्स मिच्छत्तं गंतूण जहण्णेण कालेण पुणो सम्मत्तमागदस्स जहण्णंतरुवलंभादो । एवं वेदगसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं, विसेसाभावादो । एवं उसमसम्माइट्ठिस्स वि । णवरि उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स आदि करिय वेदगसम्मतेण जहण्णद्धमंतरिय पुणो उवसमसेडिं समारुहणटुं दंसणमोहणीयमुवसमिय उवसमसम्मत्तं गयस्स जहण्णमंतरं वत्तव्यं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ १३५॥ कुदो ? अणादियमिच्छादिहिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए सम्मत्तं घेत्तण अंतोमुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणुवड्डपोग्गलपरियट्टमंतरिय अवसाणे सम्मत्तं संजमं च सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३३ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ १३४ ॥ क्योंकि, सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जघन्य कालसे पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर उक्त जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि, उसमें विशेषताका अभाव है। इसी प्रकार ही उपशमसम्यग्दृष्टिका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिये । परन्तु विशेषता यह है कि उपशमश्रेणीसे उतरे हुए जीवको आदि करके वेदकसम्यक्त्वसे जघन्य काल तक अन्तर करके पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़ने के लिये दर्शनमोहनीयको उपशान्त करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके वह जघन्य अन्तर कहना चाहिये। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥१३५॥ ___क्योंकि, अनादिमिथ्यादृष्टिके अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें सम्यक्त्वको ग्रहण कर और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर उपाध अर्थात् कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अन्तरको प्राप्त हो अन्तमें सम्यक्त्व एवं संयमको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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