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२, ११-२, ६.] अप्पाबहुगाणुगमे महादंडओ
[५७७ चत्तारि रूवाणि के वि सामण्णेण संखेज्जाणि रूवाणि गुणगारो त्ति भणति । तेणेत्थ गुणगारे तिण्णि उवएसा । तिण्णं मज्झे एक्को चिय जच्चोवएसो, सो वि ण णबइ, विसिट्ठोवएसाभावादो । तम्हा तिण्हं पि संगहो काययो ।
बादरतेउकाइयपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ॥५॥
गइमग्गणमुल्लंघिय मग्गणतरगमणादो असंबद्धमिदं सुत्तं ? ण, अप्पिदमग्गणं मोत्तूण अण्णमग्गणाणमगमणणियमस्स एक्कारसअणिओगद्दारेसु चेव अवट्ठाणादो । एत्थ पुण ण सो णियमो अत्थि, सव्वमग्गणजीवेसु महादंडओ काययो त्ति अब्भुवगमादो। को गुणगारो ? असंखेज्जाओ पदरावलियाओ। कुदो ? सव्वट्ठसिद्धिदेवेहि बादरतेउपज्जत्तरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जाणं पदरावलियाणमुवलंभादो ।
__ अणुत्तरविजय-वैजयंत-( जयंत-) अवराजितविमाणवासियदेवा असंखेज्जगुणा ॥ ६॥
चार रूप और कितने ही आचार्य सामान्यसे संख्यात रूप गुणकार है, ऐसा कहते हैं। इसलिये यहां गुणकारके विषयमें तीन उपदेश हैं। तीनोंके मध्य में एक ही जात्य (श्रेष्ठ) उपदेश है, परन्तु वह जाना नहीं जाता, क्योंकि, इस विषयमें विशिष्ट उपदेशका अभाव है । इस कारण तीनोंका ही संग्रह करना चाहिये।।
बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं ॥५॥ शंका-गति मार्गणाका उल्लंघन कर मार्गणान्तरमें जानेसे यह सूत्र असम्बद्ध है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, विवक्षित मार्गणाको छोड़कर अन्य मार्गणाओं में न जानेका नियम ग्यारह अनुयोगद्वारोंमें ही अवस्थित है। किन्तु यहां वह नियम नहीं है, क्योंकि, “सर्व मार्गणाजीवोंमें महादण्डक करना चाहिये' ऐसा माना गया है।
गुणकार क्या है ? असंख्यात प्रतरावलियां गुणकार है, क्योंकि, सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिके भाजित करनेपर असंख्यात प्रतरावलियां उपलब्ध होती हैं।
अनुत्तरों में विजय, वैजयन्त, ( जयन्त ) और अपराजित विमानवासी देव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६ ॥
१ प्रतिषु । सबट्ठसिद्धेदवेहि ' इति पाठः ।
२ तत्तो शुत्तरदेवा ततो संखेज्ज जाणओ कप्पो । ततो असंखगुणिया सत्तम पट्टी सहस्सारो ॥ पं. सं. २, ६६.
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