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________________ २, ३, ९. ] एगजीवेण अंतरानुगमे तिरिक्ख- मणुस्साणमंतरं जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ६ ॥ तिरिक्खेहिंतो मणुस्सेसुप्पज्जिय घादखुदाभवग्गहण मे तकालमच्छिय पुणो तिरिक्खे सुप्पण्णस्स तदुवलंभादो | उक्कस्सेण सागरोवमसदपुत्तं ॥ ७ ॥ तिरिक्खस्स तिरिक्खेर्हितो णिग्गयस्स सेसगदीसु सागरोवमसदपुधत्तादो उवरि अडाणाभावादो । पंचिदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता मणुसगदीए मणुस्सा माणुस - पज्जत्ता मणुसिणी मणुसअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८ ॥ सुमं । जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ९ ॥ [ १८९ कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक तिर्यंच जीवोंका तिर्यंचगतिसे अन्तर होता है ॥ ६ ॥ क्योंकि, तिर्यच जीवोंमेंसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हो कदलीघातयुक्त क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक रहकर पुनः तिर्यचों में उत्पन्न हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है । अधिक से अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक तिर्यंच जीवोंका तिर्यंचगतिसे अन्तर पाया जाता है ॥ ७ ॥ क्योंकि, तिर्यच जीवके तिर्यचोंमेंसे निकलकर शेष गतियों में सागरोपमशतपृथक्त्व काल से ऊपर ठहरनेका अभाव हैं । तिर्यंचगति से पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त, एवं मनुष्यगतिसे मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी तथा मनुष्य अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८ ॥ Jain Education International यह सूत्र सुगम है । कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक उक्त तिर्यंचोंका तिर्यंचगतिसे तथा मनुष्यों का मनुष्यगतिसे अन्तर होता है ॥। ९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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