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________________ २, ३, २७.] एगजीवेण अंतराणुगमे गेवजविमाणवासिंदेवाणमंतर [१९५ जहा- ण च अणुव्वद-महव्वदेहि संजुत्ता चेव तिरिक्ख-मणुस्सा आणद-पाणददेवेसुप्पाजंति त्ति णियमो अत्थि, तिरिक्खअसंजदसम्माइट्ठीणं छरज्जुपोसणसुत्तेण सह विरोहादो । ण च आणद-पाणदअसंजदसम्माइट्ठिणो मणुस्साउअस्स जहण्णट्ठिदिं बंधमाणा वासपुधत्तादो हेट्ठा बंधंति, महाबंधे जहण्णहिदिबंधद्धाछेदे सम्मादिट्ठीणमाउअस्स वासपुधत्तमेत्तद्विदिपरूवणादो। तदो आणद-पाणदमिच्छाइहिस्स मणुस्साउअं मासपुधत्तमेतं बंधिय पुणो मणुस्सेसुप्पज्जिय मासपुधत्तं जीविदूण पुणो सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु अंतोमुहुत्ताउएसुववज्जिय पज्जत्तयदो होदूण संजमासंजमं पडिवज्जिय आणदादिसु आउअं बंधिय उप्पण्णस्स जहण्णमंतरं होदि त्ति वत्तव्यं । उक्कस्समणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें ॥ २६ ॥ सुगमं । णवगेवज्जविमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥२७॥ सुगमं । महाव्रतोंसे संयुक्त ही तिर्यंच व मनुष्य आनत-प्राणत देवोंमें उत्पन्न हो ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर तो तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका जो छह राजु स्पर्शन बतलाने वाला सूत्र है उससे विरोध उत्पन्न हो जायगा। (देखो पखंडागम, जीवटाण, स्पर्शनानुगम, सूत्र २८ व टीका, पुस्तक ४, पृ० २०७ आदि)। और आनत-प्राणत कल्पवासी असंयतसम्यग्दृष्टि देव जब मनुष्यायुकी जघन्य स्थिति बांधते हैं तब वे वर्षपृथक्त्वसे कमकी आयुस्थिति नहीं बांधते, क्योंकि महावन्धमें जघन्य स्थितिबन्धके कालविभागमें सम्यग्दृष्टि जोवोंकी आयुस्थितिका प्रमाण वर्षपृथक्त्वमात्र प्ररूपित किया गया है । अतः आनत-प्राणत कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवके मासपृथक्वमात्र मनुष्यायु बांधकर फिर मनुष्यों में उत्पन्न हो मासपृथक्त्व जीवित रहकर पुनः अन्तर्महर्तमात्र आय वाले संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच समूर्छन पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होकर पर्याप्तक हो संयमासंयम (अणुव्रत) ग्रहण करके आनतादि कल्पोंकी आयु बांधकर वहां उत्पन्न हुए जीवके सूत्रोक्त मासपृथक्त्वप्रमाण जघन्य अन्तरकाल होता है, ऐसा कहना चाहिये । ___अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंका अन्तर होता है ।। २६ ॥ यह सूत्र सुगम है। नौ अवेयक विमानवासी देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ २७ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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