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________________ २, १, ४०.] बंधगसंतपस्वणाए सण्णिमग्गणा कुदो ? सासवाणासवेसु सम्मईसणुवलंमा । सिद्धा अबंधा ॥ ३७॥ सुगममेदं । सण्णियाणुवादेण सण्णी बंधा, असण्णी बंधा ॥ ३८ ॥ णेव सण्णी णेव असण्णी बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥३९॥ विणगुणोइंदियखओवसमादो केवलणाणी णो सणिणो; तत्थ इंदियोवढंभषलेणाणुप्पण्णबोधुवलंभादो णो असण्णिणो । तदो ते बंधा वि अबंधा वि, बंधाबंधकारणजोगाजोगाणमुवलंभा। सिद्धा अबंधा ॥४०॥ सुगममेदं । । क्योंकि, चौथेसे तेरहवें गुणस्थान तकके आस्रव सहित और चौदहवें गुणस्थामवर्ती आस्रव रहित, ऐसे दोनों प्रकारके जीवों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है। सिद्ध अबन्धक हैं ॥ ३७॥ यह सूत्र सुगम है। संज्ञीमार्गणानुसार संज्ञी बन्धक हैं, असंज्ञी बन्धक हैं ॥ ३८ ॥ न संज्ञी न असंज्ञी ऐसे केवलज्ञानी जिन बन्धक भी हैं, अवन्धक भी हैं ॥ ३९॥ - जिनका नाइन्द्रिय क्षयोपशम नष्ट हो गया है ऐसे केवलज्ञानी संसी नहीं हैं। और चूंकि उनमें इन्द्रियालम्बनके बलसे अनुत्पन्न अर्थात् अतीन्द्रिय शान पाया जाता है इसलिये केवलज्ञानी असंही भी नहीं हैं । अतः न संशी न असंक्षी बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, क्योंकि उनमें सयोगि अवस्थामें बन्धका कारण योग पाया जाता है और अयोगि अवस्थामें अबन्धका कारण अयोग पाया जाता है। सिद्ध अबन्धक हैं ॥ ४०॥ यह सूत्र सुगम है। १ प्रतिषु ' केवलणाणी सणिणो तत्थ णोइंदिया-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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