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________________ ९०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १, ४७. जीवे ण पंच णाणाणि, केवलणाणमेक्कं चेव । ण चावरणाणि णाणमुप्पाइयंति विणासयाणं तदुप्पायणविरोहादो। तदो केवलणाणं खओवसामियं भावं लहदि त्ति ण, एदस्स सस. हेजस्स केवलत्तविरोहादो। ण च छारेणोद्धग्गिविणिग्गयबफाए अग्गिववएसो आग्गिबुद्धी वा अग्गिववहारो वा अत्थि, अणुवलंभादो । तदो दाणि णाणाणि केवलणाणं । तेण कारणेण केवलणाणं ण खओवसमियामिदि । ण खइयं पि, खओ णाम अभावो तस्स कारणत्तविरोहादो । एदं सव्वं बुद्धीए काऊण केवलणाणी कधं होदि ति भणिदं । खइयाए लद्धीए ॥४७॥ ण च केवलणाणावरणक्खओ तुच्छो त्ति ण कज्जयरो, केवलणाणावरणबंध-संतोदयाभावस्स अणंतवीरिय-वेरग्ग-सम्मत्त-दसणादिगुणेहि जुत्तजीवदव्यस्स तुच्छत्तविरोहादो। भावस्स अभावत्तं ण विरुज्झदे, भावाभावाणमष्णोणं विस्ससेणेव सव्यप्पणा आलिंगिऊण गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है। इसलिये जीवमें पांच शान नहीं होते, एकमात्र केवलज्ञान ही होता है ? आवरणोंको ज्ञानका उत्पादक मान नहीं सकते, क्योंकि, जो विनाशक हैं उन्हें उत्पादक मानने में विरोध आता है। इसलिये 'केवलज्ञान क्षायोपशामक भाव ही प्राप्त होता है' ऐसा भी नहीं मान सकते, क्योंकि, क्षायोपशमिक भाव साधनसापेक्ष होनेसे उसके केवलत्व मानने में विरोध आता है। क्षार ( भस्म ) से ढकी हुई अग्निसे निकले हुए बाप्पको अग्नि नाम नहीं दिया जा सकता, न उसमें अन्निकी बुद्धि उत्पन्न होती, और न अग्निका व्यवहार ही, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव ये सब मति आदि ज्ञान केवलज्ञान नहीं हो सकते । इस कारणसे केवलज्ञान क्षायोपशामिक भी नहीं है। केवलज्ञान क्षायिक भी नहीं है, क्योंकि, क्षय तो अभावको कहते हैं, और अभावको कारण मानने में विरोध आता है। इन सब विकल्पोंको मनमें करके ' जीव केवलज्ञानी कैसे होता है ' यह प्रश्न किया गया है। क्षायिक लब्धिसे जीव केवलज्ञानी होता है ॥ ४७ ॥ केवलशानावरणका क्षय तुच्छ अर्थात् अभावरूप मात्र है इसलिये वह कोई कार्यकरनेमें समर्थ नहीं हो सकता, ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, केवलज्ञानावरणके बन्ध, सत्त्व और उदयके अभाव सहित तथा अनन्तवीर्य, वैराग्य, सम्यक्त्व व दर्शन आदि गुणोंसे युक्त जीव द्रव्यको तुच्छ मानने में विरोध आता है। किसी भावको अभावरूप मानना विरोधी बात नहीं है, क्योंकि भाव और अभाव स्वभावसे ही एक दूसरेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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