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२, १, ११. ]
सामित्ताणुगमे उदयद्वाणपरूवणा
संखा तह पत्थारो परियहण णट्ठ तह समुद्दिट्ठे' । एदे पंच वियप्पा द्वाणसमुक्कित्तणा । ' ॥ ७ ॥
सव्वे विपुव्वभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेसु । मेलति त्तिय कमसो गुणिदे उप्पज्जदे संखा ॥ ८ ॥
पढमं पडिपमा कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च । पिंडं पडि एक्के णिक्खेित्ते होदि पत्थारो ॥ ९ ॥ णिक्खित्तु विदियमेत्तं पढमं तस्सुवरि विदियमेक्केक्कं । पिंडं पडिणिक्खित्ते एवं सेसा वि कायव्वा ॥ १० ॥
पढमक्खो अंतगओ आदिगदे संक्रमेदि बिदियक्खो । दोणि वि गंतूत आदिगदे संक्रमेदि तदियक्खो ॥ ११ ॥
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संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट और समुद्दिष्ट, इन पांच विकल्पोंको स्थानोंका समुत्कीर्तन अर्थात् विवरण करनेवाले जानना चाहिये ॥ ७ ॥
सभी पूर्ववर्ती भंग उत्तरवर्ती प्रत्येक भंग में मिलते हैं, अतएव उन मंग क्रमशः गुणित करनेपर सब भंगों की संख्या उत्पन्न होती है ॥ ८ ॥
पहले प्रकृतिप्रमाणको क्रमसे रखकर अर्थात् उसकी एक एक प्रकृति अलग अलग रखकर एक एकके ऊपर उपरिम प्रकृतियोंके पिंडप्रमाणको रखनेपर प्रस्तार होता है ||१२|| दूसरे प्रकृतिपिंडका जितना प्रमाण है उतने वार प्रथम पिंडको रखकर उसके ऊपर द्वितीय पिंडको एक एक करके रखना चाहिये । ( इस निक्षेपके योगको प्रथम समझ और अगले प्रकृतिपिंडको द्वितीय समझ तत्प्रमाण इस नये प्रथम निक्षेपको रखकर जोड़ना चाहिये ।) आगे भी शेष प्रकृतिपिंडों को इसी प्रक्रियासे रखना चाहिये ॥ १० ॥
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प्रथम अक्ष अर्थात् प्रकृतिविशेष जब अन्त तक पहुंचकर पुनः आदि स्थानपर आता है, तब दूसरा प्रकृतिस्थान भी संक्रमण कर जाता है अर्थात् अगली प्रकृतिपर पहुंच जाता है; और जब ये दोनों स्थान अन्तको पहुंचकर आदिको प्राप्त हो जाते हैं तब तृतीय अक्षका भी संक्रमण होता है ॥ ११ ॥
१ प्रतिषु ' तस्समुद्दिद्धं ' इति पाठः ।
२ गो. जी. ३५.
४ गो. जी. ३८.
३ गो. जी. ३६.
५. गो. जी. ४०.
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