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४७०] छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, ८, २०. उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २० ॥
मणुसअपज्जत्ताणं जधा पलिदोवमस्म असंखेज्जदिभागमेत्तो संताणकालो परूविदो तधा एत्थ वि परूवेदव्यो ।
आहारकायजोगी केवचिरं कालादो होति ? ॥ २१ ॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमयं ॥ २२ ॥
कुदो १ मणजोग-वचिजोगहिंतो आहारकायजोग गंतूण बिदियसमए कालं करिय जोगंतरं गयस्स एगसमयकालुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ २३ ॥
एत्थ आहारकायजोगीणं दुचरिमसमओ जाव आहारकायजोगप्पवेसस्स अंतरं करिय पुणो उवरिमसमए अण्णे जीवे पवेसियव्वा' । एवं संखेज्जवारसलागासु उप्पण्णासु तदो णियमा अंतर होदि । एवं संखेनंतोमुहुत्तसमासो वि अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव ।
वही काल उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ २० ॥
जिस प्रकार मनुष्य अपर्याप्तोंके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सन्तानकालका निरूपण किया जा चुका है, उसी प्रकार यहांपर भी निरूपण करना चाहिये ।
आहारकमिश्रकाययोगी जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ २१ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारकमिश्रकाययोगी जीव जघन्यसे एक समय तक रहते हैं ॥ २२ ॥
क्योंकि, मनोयोग और वचनयोगसे आहारककाययोगको प्राप्त होकर व द्वितीय समयमें मरण कर योगान्तरको प्राप्त होनेपर एक समय काल पाया जाता है।
आहारककाययोगी जीव उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ।। २३ ॥
यहां आहारक काययोगियों के द्विचरम समय तक आहारककाययोगमें प्रवेशका अन्तर करके पुनः उपरिम समयमै अन्य जीवोंका प्रवेश कराना चाहिये । इस प्रकार संख्यात वार-शलाकाओंके उत्पन्न होनेपर तत्पश्चात् नियमसे अन्तर होता है। इस प्रकार संख्यात अन्तर्मुहूर्ताका जोड़ भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है।
१ प्रतिषु — पवेसिय ' इति पाठः ।
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