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छक्खंडागमे खुदावंधो
[२, १, १६. अट्टकम्मेसु खीणेसु जा उड्डगमणुवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्तत्तादो । सहिददेसमछंडिय छदित्ता वा जीवदधस्स सावयवेहि परिप्फंदो अजोगो' णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो । तेण सक्किरिया वि सिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्यत्तण-परियत्तणकिरियाभावादो । तदो ते अबंधा त्ति' भणिदा।
वेदाणुवादेण इत्थिवेदा बंधा, पुरिसवेदा बंधा, णqसयवेदा बंधा ॥ १६ ॥
सुगममेदं । अवगदवेदा बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अस्थि ॥ १७ ॥ सकसायजोगेसु अकसायजोगेसु च अवगयवेदत्तुवलंभा ।
ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीवका स्वाभाविक गुण है, क्योंकि यह कर्मोदयके विना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेशको न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्यका अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होता हैं। अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनके जीवप्रदेशोंके तप्तायमान जलप्रदेशोंके सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रियाका अभाव है। इसीलिये अयोगियोंको अबन्धक कहा है।
वेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी जीव बन्धक हैं, पुरुषवेदी बन्धक हैं और नपुंसकवेदी बन्धक है ॥१६॥
यह सूत्र सुगम है। अपगतवेदी बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥१७॥
क्योंकि, कषाय व योग सहित तथा कषाय व योग रहित जीवोंमें अपगतवेदत्व पाया जाता है।
विशेषार्थ-नौ के अवेदभागसे लेकर तेरहवें तकके गुणस्थान यद्यपि अपगत वेदियोंके हैं, तो भी उनमें कषाय व योगका सद्भाव होनेसे कर्मबन्ध होता ही है, और इस प्रकार इन गुणस्थानोंके जीव अपगतवेदी होनेपर भी बन्धक हैं। चौदहवें गुणस्थानमें बंधका अन्तिम कारण योग भी नहीं रहता और इस कारण इस गुणस्थानके अपगतवेदी जीव अबन्धक हैं।
२ कप्रतौ वि सिट्ठा' इति पाठः।
१ प्रतिषु 'परिप्फंदो जोगो' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'तदो ति अबंधो ति' इति पाठः।
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