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________________ [१७ २, १, १५.] बंधगसंतपरूवणाए जोगमग्गणा सुगममेदं। तसकाइया बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ १२ ॥ कुदो ? मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति तसकाइएसु बंधकारणुवलंभा, अजोगिकेवलिम्हि तदणुवलंभादो । अकाइया अबंधा ॥ १३ ॥ सुगममेदं । जोगाणुवादेण मणजोगि-वचिजोगि-कायजोगिणो बंधा ॥१४॥ एवं पि सुगमं । अजोगी अबंधा ॥ १५॥ जोगो णाम किं ? मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो । जदि एवं तो णत्थि अजोगिणो, सरीरयस्स जीवदव्यस्स अकिरियत्तविरोहादो । ण एस दोसो, यह सूत्र सुगम है। त्रसकायिक जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ १२ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली तकके त्रसकायिक जीपोंमें बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादि पाये जाते हैं, किन्तु अयोगिकेवलीमें वे बन्धके कारण नहीं पाये जाते। अकायिक जीव अवन्धक हैं ॥ १३ ॥ यह सूत्र सुगम है। योगमार्गणानुसार मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बन्धक हैं ॥१४॥ यह सूत्र भी सुगम है। अयोगी जीव अबन्धक हैं ॥१५॥ शंका-योग किसे कहते हैं ? समाधान-मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलोंके आलम्बनसे जो जीवप्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है वही योग है। शंका-यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो ही नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीव द्रव्यको अक्रिय मानने में विरोध आता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि आठों काँके क्षीण हो जानेपर जो १ प्रतिषु 'आकीरियत्तविरोहादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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