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२, १, १५.] बंधगसंतपरूवणाए जोगमग्गणा
सुगममेदं। तसकाइया बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ १२ ॥
कुदो ? मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति तसकाइएसु बंधकारणुवलंभा, अजोगिकेवलिम्हि तदणुवलंभादो ।
अकाइया अबंधा ॥ १३ ॥ सुगममेदं । जोगाणुवादेण मणजोगि-वचिजोगि-कायजोगिणो बंधा ॥१४॥ एवं पि सुगमं । अजोगी अबंधा ॥ १५॥
जोगो णाम किं ? मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो । जदि एवं तो णत्थि अजोगिणो, सरीरयस्स जीवदव्यस्स अकिरियत्तविरोहादो । ण एस दोसो,
यह सूत्र सुगम है। त्रसकायिक जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ १२ ॥
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली तकके त्रसकायिक जीपोंमें बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादि पाये जाते हैं, किन्तु अयोगिकेवलीमें वे बन्धके कारण नहीं पाये जाते।
अकायिक जीव अवन्धक हैं ॥ १३ ॥ यह सूत्र सुगम है। योगमार्गणानुसार मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बन्धक हैं ॥१४॥ यह सूत्र भी सुगम है। अयोगी जीव अबन्धक हैं ॥१५॥ शंका-योग किसे कहते हैं ?
समाधान-मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलोंके आलम्बनसे जो जीवप्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है वही योग है।
शंका-यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो ही नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीव द्रव्यको अक्रिय मानने में विरोध आता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि आठों काँके क्षीण हो जानेपर जो
१ प्रतिषु 'आकीरियत्तविरोहादो' इति पाठः ।
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