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२, १, २१.] बंधगसंतपरूवणाए कसायमांगणा
सिद्धा अबंधा ॥ १८ ॥
अवगदवेदत्तं सिद्धेसु वि अत्थि जेण कारणेण तेण अवगदवेदपरूवणाए चेव सिद्धा वि परूविदा ति सिद्धाणं पुधपरूवणा णिप्फला किण्ण होदि ति वुत्ते, ण होदि, अवगदवेदत्तेण बंधगाबंधगा दो वि रासीओ पडिग्गहिदाओ जेण संदेहो सिद्धेसु वि बंधगाबंधगविसओ समुप्पज्जदि । तण्णिराकरणटुं सिद्धा अबंधा त्ति पुधपरूवणा कदा । सेसं सुगमं ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई बंधा॥१९॥
सुगममेदं । अकसाई बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अस्थि ॥ २० ॥ कुदो ? सजोगाजोगेसु अकसायत्तस्सुवलंभा । सिद्धा अबंधा ॥ २१ ॥
सिद्ध अबन्धक हैं ॥१८॥
शंका-अपगतवेदत्व सिद्धोंमें भी तो है अत एव उपर्युक्त सूत्रमें अपगतवेदोंकी प्ररूपणासे सिद्धोंका भी प्ररूपण हो गया। इसलिये सिद्धोंकी पृथक् प्ररूपणा निष्फल है ?
समाधान - सिद्धोंकी पृथक् प्ररूपणा निष्फल नहीं है, क्योंकि, अपगतवेदत्वकी अपेक्षा बंधक और अबन्धक ये दोनों राशियां ग्रहण की गयी हैं जिससे सन्देह होने लगता है कि क्या सिद्धोंमें भी बन्धक और अबन्धक ऐसे दो भेद है। इसी सन्देहको दूर करनेके लिये 'सिद्ध अबन्धक हैं ' ऐसी पृथक् प्ररूपणा की गयी है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी बन्धक हैं ॥१९॥
यह सूत्र सुगम है। अकषायी बन्धक भी हैं, अवन्धक भी हैं ॥ २० ॥
क्योंकि, ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर तेरहवे गुणस्थान तकके सयोगी जीवोंके बन्धक होनेपर भी अकषायत्व पाया जाता है, और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जीबोंके अवन्धक होते हुए भी अकषायत्व पाया जाता है।
सिद्ध अबन्धक हैं ॥ २१॥
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