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२, ६, १५.] खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवणं
[३१३ उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ उववादखेत्तं मारणंतियखेत्तं व ठवेदव्यं । णवीर एसो रासी एगसमयसंचिदो त्ति आवलियाए असंखेज्जदिमागगुणगारो ण दादयो । पढमदंडमुवसंहरिय बिदियदंडेण सेडीए संखेज्जदिभागायामेण' मुक्कमारणंतियजीवे इच्छिय अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो । एत्थ ओवट्टणा पुव्वं व कायव्यं ।
देवगदीए देवा सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ?
एत्थ तेजाहार-केवलिसमुग्धादा णत्थि, देवेसु तेसिमत्थित्तविरोहादो। किं सबलोगे कि लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु किं वा संखेज्जदिभागे किमसंखेज्जदिभागे किमणंतिमभागे किं वा संखेज्जासंखेज्जाणंतलोगेसु ति पुच्छिदे उत्तरमुत्तं भणदि । अधवा आसंकिदसुत्तमेदं । वासदेण विणा कधमासंकावगम्मदे १ तेण विणा वि तदहावगदीदो।
उपपादको प्राप्त मनुष्य अपर्याप्त तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक एवं तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । यहां उपपादक्षेत्रको मारणान्तिक क्षेत्रके समान स्थापित करना चाहिये। विशेष इतना है कि यह राशि एक समयसंचित है, अतएव आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार नहीं देना चाहिये। प्रथम दण्डका उपसंहार कर द्वितीय दडसे गश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयामसे मुक्तमारणान्तिक जीवोंकी इच्छाराशि स्थापित कर एक अन्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये । यहां अपवर्तन पूर्वके समान करना चाहिये।
देवगतिमें देव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥१५॥
यहां तैजससमुद्धात, आहारकसमुद्धात और केवलिसमुद्घात नहीं है,क्योंकि, देवों में इनके अस्तित्वका विरोध है। 'क्या सर्व लोकमें, क्या लोकके असंख्यात बहुभागोम, क्या लोकके संख्यातव भागमें, क्या लोकके असंख्यातवे भागमें, क्या लोकके
त भागमें. अथवा क्या संख्यात. असंख्यात व अनन्त लोकोंमें रहते हैं। ऐसा पूछनेपर उत्तर सूत्र कहते हैं । अथवा यह आशंकासूत्र है।
शंका-वा शब्दके विना कैसे आशंकाका परिज्ञान होता है ? समाधान- क्योंकि, वा शब्दके विना भी उस अर्थका परिक्षान हो जाता है।
१ अप्रतौ · असंखेज्जदिभागायामेण ' इति पाठः।
२ अ-आप्रयोः 'वेसद्देण ' इति पाठः।
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