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________________ ३१६ ] डागमे खुदा [ २, ६, १७. भांगहारो दादव | पुणे संखेज्जपदरंगुलगुणिदजगसेडि संखेज्जभागेण गुणिदे उववादखेतं होदि । एत्थ पंचलोगोवदृणं जाणिय कायव्यं । भवणवासिय पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा देवरादिभंगो ॥ १७ ॥ -- एसो दव्वणि षडुच्च णिदेसो, पज्जवद्वियणए अवलंबिज्जमाणे अत्थि विसेसो । तं जहा- सत्थाणसत्याण-विहारख दिसत्थाण वेदण-कसाय - वेउच्चियसमुग्धादगदा भवणवासियदेवा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ खेतविण्णासो जाणिय कायच्यो । उववादगदाणं पि एवं चैव वत्तव्यं । तिरिक्खमसाणं विग्ग काढूण भवणवासियदेवेस सेडीए संखेज्जदिभागायामेण विदियदंडे विवादाणमुववादखेत्तं तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं किण्ण लब्भदे ? दमसंभवादो । एविग्ग काऊ तत्थुष्पण्णाणमुववादखेत्तायामो ण तात्र असंखेज्जजोयणमेत्तो 'सोलस दुखरो भागो पंकबहुलो य तह चुलासीदि । आवबहुलो असीदि' चि सुतेग सह विरोहादो । संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित जगश्रेणिके संख्यातवें भागसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्र होता है । यहां पांच लोकोंका अपवर्तन जानकर करना चाहिये । भवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों का क्षेत्र देवगतिके समान है ।। १७ ।। यह निर्देश द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा है, पर्यायार्थिक नयका अवलंवन करनेपर विशेषता है । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, बेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घाद और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त भवनवासी देव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां क्षेत्रविन्यास जानकर करना चाहिये । उपपादको प्राप्त भवनवासी देवोंके भी क्षेत्रका इसी प्रकार कथन करना चाहिये | शंका - दो विग्रह करके भवनवासी देवों में जगश्रेणी के संख्यातवें भागप्रमाण आयाम से द्वितीय दण्ड में प्राप्त तिर्येच मनुष्योंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणा क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान - ऐसा नहीं पाया जाता, क्योंकि असंभव है। एक विग्रह करके भवनवासियों में उत्पन्न होनेवाले तिर्यच मनुष्योंके उपपादक्षेत्रका आयाम असंख्यात योजनमात्र नहीं है, क्योंकि, ' खरभाग सोलह सहस्र योजन, पंकबहुलभाग चौरासी सहस्र योजन, और अध्यहुलभाग अस्सी सहस्र योजन मोटा है' इस सूत्र के साथ विरोध होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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