SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 584
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २, ११, ११४. ] अप्पा बहुगागमे जोगमग्गणा कायजोगी अनंतगुणा ॥ ११० ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सव्यजीव पढमवग्गमूलादो वि अनंतगुणो । अणेण पयारेण जोगप्पा बहुअपरूत्रणमुत्तरमुत्तं भणदि सव्वत्थोवा आहारमिस्सकायजोगी ।। १११ ॥ सुगमं । आहार कायजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११२ ॥ को गुणगारो ? दोणि रुवाणि । वे उव्वियमिस्सकायजोगी असंखेज्जगुणा ॥ ११३ ॥ गुणगारी जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो । सच्चमणजोगी संखेज्जगुणा ॥ ११४ ॥ कुदो ? विस्ससादो अयोगियोंसे काययोगी अनन्तगुणे हैं ॥ ११० ॥ गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूल से भी अनन्तगुणा है। अन्य प्रकार से योगमार्गणाकी अपेक्षा अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं— [ ५५१ आहारमिश्रकाययोगी सबमें स्तोक हैं ।। ११२ ॥ यह सूत्र सुगम आहारमिश्रकाययोगियोंसे आहारकाययोगी संख्यातगुणे हैं ॥ ११२ ॥ गुणकार कितना है ? गुणकार दो रूप है । आहारकाययोगियोंसे वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंख्यातगुणे हैं ।। ११३ ॥ है 1 Jain Education International गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंसे सत्यमनोयोगी संख्यातगुणे हैं ।। ११४ ॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव से है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy