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________________ १५०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, २, १२७. उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणं ॥ १२७ ॥ देवस्स णेरइयस्स वा खइयसम्माइहिस्स पुचकोडाउएसु मणुसेसुवधज्जिय अहवस्साणि गमिय संजमं पडिवज्जिय सयजहण्णकालेण खवगसेडिं चडिय अवगदवेदो होदूण केवलणाणं समुप्पाइय देसूणपुरकोडिं विहरिय अबंधगभावं गदस्स तदुवलंभादो । कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२८ ॥ सुगमं । जहण्णेण एयसमओ ॥ १२९ ॥ अणप्पिदकसायादो कोधकसायं गंतूण एगसमयमच्छिय कालं करिय णिरयगई मोत्तूणण्णगईमुप्पण्णस्स एगसमओवलंभादो। कोधस्स वाघादेण एगसमओ णन्थि, वाघादिदे नि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। एवं सेसतिण्हं कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा । णवरि एदेसिं तिण्हं कसायाणं वाघादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा । अधिकसे अधिक कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ॥ १२७॥ क्योंकि, देव अथवा नारक क्षायिकसम्यग्दृष्टिके पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, आठ वर्ष विताकर, संयमको प्राप्त कर, सर्वजघन्य कालसे क्षपक श्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर, केवलज्ञानको उत्पन्न कर, और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विहार करके अबंधक अवस्थाको प्राप्त होनेपर वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है। कषायमार्गणानुसार जीव क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकपायी और लोभकपायी कब तक रहता है ? ॥ १२८ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव क्रोधकषायी आदि रहता है ॥ १२९ ।। क्योंकि, अविवक्षित कषायसे क्रोधकषायको प्राप्त होकर, एक समय रहकर और फिर मरकर नरकगतिको छोड़ अन्य गतियोंमें उत्पन्न हुए जीवके एक समय पाया जाता है । क्रोधके व्याघातसे एक समय नहीं पाया जाता, क्योंकि व्याघातको प्राप्त होनेपर भी पुनः क्रोधकी ही उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार शेष तीन कषायोंके भी एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि इन तीन कषायोंके व्याघातसे भी एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिये । मरणकी अपेक्षा एक समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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