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________________ २, २, १२६.] एगजीवेण कालाणुगमे अवगदवेदकालपरूवणं अवगदवेदा केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १२३॥ सुगमं । उवसमं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ १२४ ॥ उवसमसेडिं चडिय अवगदवेदो होदूण एगसमयमाच्छय विदियसमए कालं कादण वेदभावं गदस्स तदुवलंभादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२५ ॥ इत्थिवेदोदएण गर्बुसयवेदोदएण वा उबसमसेडि चडिय अवगदवेदो होदृण सव्युक्कस्समंतोमुहुत्तमाच्छिय वेदभावं गदस्स तदुवलंभादो । खवगं पडुच्च नहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १२६ ॥ खवगसेडिं चढिय अवगदवेदो होद्ण सव्वजहण्णेण कालेण परिणवुदस्स तदुवलंभादो। जीव अपगतवेदी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १२३ ।। यह सूत्र सुगम है। उपशमककी अपेक्षा कमसे कम एक समय तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ॥ १२४ ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर और एक समय रहकर द्वितीय समयमें मरकर सवेदपनेको प्राप्त हुए जीवके एक समय काल पाया जाता है । अधिकसे आधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ।। १२५ ।। क्योंकि, स्त्रीवेदके उदयसे या नपुंसकवेदके उदयसे उपशमश्रेणी चढ़कर, अपगतवेदी होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर वेदपने को प्राप्त हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। क्षपककी अपेक्षा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव अपगतवेदी रहते हैं ॥ १२६ ॥ _ क्योंकि, क्षपक श्रेणी चढ़कर और अपगतवेदी होकर सर्वजघन्य कालसे मुक्तिको प्राप्त हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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