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________________ २, ३, २२.] एगजीवेण अंतराणुगमे सदार-सहस्सारदेवाणमंतरं अणुक्य-महब्बएहि विणा तिरिक्ख-मणुस्सा गम्भादो अणिक्खता चेव कधं देवेसुप्पज्जति? ण, परिणामपच्चएण तिरिक्ख-मणुस्सपज्जत्ताणं दिवसपुधत्तजीवियाणं तत्थुप्पत्तीए विरोहाभावादो। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ २०॥ सुगमं । सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सारकप्पवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥२१॥) सुगम । जहण्णेण पक्खपुधत्तं ॥ २२ ॥ कुदो ? एदेहि बज्झमाणआउअस्स पक्खपुधत्तादो हेट्ठा जहण्णहिदिबंधाभावादो। शंका-दिवसपृथक्त्वकी आयुमें तो तिर्यंच व मनुष्य गर्भसे भी नहीं निकल पाते और इसलिये उनमें अणुव्रत व महाव्रत भी नहीं हो सकते। ऐसी अवस्थामें बे दिषसपृथक्त्वमात्रकी आयुके पश्चात् पुनः देवोंमें कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि परिणामोंके निमित्तसे दिवसपृथक्त्व. मात्र जीवित रहनेवाले तिर्यंच व मनुष्य पर्याप्तक जीवोंके देवोंमें उत्पन्न होनेमें कोई विरोध नहीं आता। अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक अलब्रह्मोत्तर व लान्तव-कापिष्ठ देवोंका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ २० ॥ यह सूत्र सुगम है। शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार कल्पवासी देवोंका देवगतिसे अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥२१॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम पक्षपृथक्त्व काल तक शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार कल्पवासी देवांका देवगतिसे अन्तर होता है ॥ २२ ॥ क्योंकि, उक्त देवों द्वारा बांधी जानेवाली आयुका जघन्य स्थितिबन्ध पक्षपृथक्रवसे कम नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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