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________________ २, ७, १८४.] फोसणाणुगमै दंसणमग्गणां [ ४३५ भागा चक्खुदंसणीहि फोसिदा, अट्ठरज्जुबाहल्लरज्जुपदरभंतरे चक्खुदंसणीणं विहारस्स विरोहाभावादो। समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १८१ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १८२ ॥ एत्थ खेत्तपरूवणा कायव्वा, वट्टमाणकालेण अहियारादो । अट्टचोदसभागा देसूणा ॥ १८३ ॥ कुदो ? वेयण-कसाय-वेउब्वियसमुग्घादेहि विहरंतदेवेसु समुप्पण्णेहि अट्ठचौद्दसभागखेत्तस्स पुसिज्जमाणस्स दंसणादो । मारणंतियफोसणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि सव्वलोगो वा ॥ १८४ ॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं. जहा- देव-णेरइएहि मारणंतियसमुग्घादेहि तेरहचोदसभागा फोसिदा, लोगणालीए बाहिमेदेसि उववादाभावेण मारणंतिएण गमणाचौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, आठ राजु बाहल्यसे युक्त राजुप्रतरके भीतर चक्षुदर्शनी जीवोंके विहारका कोई विरोध नहीं है। चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा समुद्धात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ १८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा समुद्घात पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १८२ ॥ यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालका अधिकार है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं ॥ १८३ ॥ क्योंकि, विहार करनेवाले देवोंमें उत्पन्न वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातोंसे स्पर्श किया जानेवाला आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र देखा जाता है। मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शनके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ १८४ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-देव व नारकियों द्वारा मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा तेरह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, लोकनालीके बाहिर इनके उत्पादका अभाव होनेसे मारणान्तिकसमुद्घातके द्वारा गमन नहीं होता। १ अप्रतौ ' देव-णेरहयाणं हि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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