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३४० छक्खंडांगमे ख़ुद्दाबंधौ
[२, ६, ५२. असंखेज्जगुणत्तणेण; उववाद-मारणतिएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागत्तणेण, गर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणतणेण; केवलिसमुग्घादेण तेजाहारपदेहि य अपज्जत्तजोग्गपदेहि य भेदो णत्थि । तेण पंचिदियाणं भंगो त्ति ण विरुज्झदे ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी सस्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ५२ ॥
__एत्थ सत्थाणे दो वि सत्थाणाणि अस्थि, समुग्घादे वेयण-कसाय-उब्धियतेजाहार-मारणंतियसमुग्यादा अस्थि, उट्ठाविदउत्तरसरीराणं मारणंतियगदागं पि मण-वचिजोगसंभवस्स विरोहाभावादो। उववादो णत्थि, तत्थ कायजोगं मोत्तूणण्णजोगाभावादो ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५३ ॥ एदस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय
असंख्यातगुणत्वसे कोई भेद नहीं है; उपपाद व मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भागत्वसे एवं मनुष्य व तिर्यग्लोककी अपेक्षा असंख्यातगुणत्वसे कोई भेद नहीं है; तथा केवलिसमुद्घात, तैजससमुद्घात व आहारकसमुद्घात पदोंसे एवं अपर्याप्त योग्य पदोंसे भी कोई भेद नहीं है। अत एव 'उक्त त्रस जीवोका क्षेत्र पंचेन्द्रिय जीवोंके समान है' ऐसा कहना विरुद्ध नहीं है।
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ॥ ५२ ॥
यहां स्वस्थानमें दोनों स्वस्थान और समुद्घातमें वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैकिायकसमुद्घात, तेजससमुद्घात, आहारसमुद्घात एवं मारणान्तिकसमुद्घात हैं, क्योंकि, उत्तर शरीरको उत्पन्न करनेवाले मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त जीवोंके भी मनोयोग व वचनयोगके होनेमें कोई विरोध नहीं है। मनोयोगी व वचनयोगी जीवों में उपपाद पद नहीं है, क्योंकि, उनमें काययोगको छोड़कर अन्य योगोंका अभाव है।
पांचों मनोयोगी व पांचों वचनयोगी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५३॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहार
१ प्रतिषु ' -मारणतिएण ' इति पाठः ।
२ प्रति — सस्थाणेण ' इति पाठः ।
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