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२, ७, ६२.1 फोसणाणुगमे पंचिदियाणं फोसणं
[ ३९७ आणिज्जमाणे रज्जुपदरं ठविय संखेजंगुलेहि गुणिय तसजीववज्जियसमुद्देहि ओट्ठद्धखेत्तमवणिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं विगलिंदियअपज्जत्ताणं च सत्थाणखेत्तं पुण सयंपहपव्ययस्स परदो चेव होदि, भोगभूमिपडिभागम्मि तेसिमुप्पत्तीए अभावादो । अधवा पुबवेरियदेवपओगेण भोगभूमिपडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिक्खकलेवरेसु तसअपज्जत्ताणमुप्पत्ती अस्थि त्ति भणंताणमहिप्पारण खेत्ते आणिज्जमाणे संखेज्जंगुलबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय एगुणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे अपज्जत्तसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदि. भागो होदि । एवं विहारसत्थाणेण वि, मित्तामित्तदेवप्पओएण सव्वदीव-समुद्देसु विहारस्स विरोहाभावादो । णवरि देवाणं विहारमस्सिदूण अट्ठचोद्दसभागा देसूणा होति ।
समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ६१ ॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदसभागा वा देसूणा असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा ।। ६२ ॥
कर व संख्यात अंगुलोंसे गुणित कर और उसमेंसे त्रस जीव रहित समुद्रोंसे व्याप्त क्षेत्रको कम कर प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। किन्तु पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थानक्षेत्र स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें ही है, क्योंकि, भोगभूमिप्रतिभागमें उनकी उत्पत्तिका अभाव है। अथवा पूर्ववैरी देवोंके प्रयोगसे भोगभूमिप्रतिभागरूप द्वीप समुद्रोंमें पड़े हुए तिर्यंचशरीरोंमें त्रस अपर्याप्तोंकी उत्पत्ति होती है, ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे उक्त क्षेत्रके निकालते समय संख्यात अंगुल बाहल्यरूप राजुप्रतरको स्थापित कर व उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थानक्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । इसी प्रकार विहारवत्स्वस्थानपदकी अपेक्षा भी स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, मित्र व शत्रु स्वरूप देवोंके प्रयोगसे सर्व द्वीप-समुद्रोंमें विहारका कोई विरोध नहीं है। विशेष इतना है कि देवोंके विहारका आश्रय कर कुछ कम आठ बटे चौदह भाग होते हैं ।
समुद्घातोंकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ६१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
समुद्घातोंकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग, असंख्यात बहुभाग, अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ६२ ॥
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