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________________ १६] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १, ११. चत्तारि उदयट्ठाणाणि होति । तत्थ आदावुज्जोवुदयविरहिदएइंदियस्स भण्णमाणे तिरिक्खगदी-एइंदियजादितेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी-अगुरुगलहुअ-थावर बादर-सुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिरं सुभासुभं दुभगं अणादेज्ज जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणमिदि एदासिं एक्कवीसपयडीण उदओ विग्गहगदीए वड्माणस्स एइंदियस्स होदि। केवचिरं? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया। एत्थ अक्खपरावत्त काऊण मंगा उप्पाएदया। तत्थ अजसकित्तिउदएण चत्तारि भंगा । जसकित्तिउदएण एक्को चेव । कुदो ? सुहुम-अपज्जत्तेहि सह . जसकित्तीए उदयाभावा, जसगित्तीए सह सहुम-अपज्जत्ताणं उदयाभावादो वा । तेणेत्थ भंगा पंचव होंति' |५)। पुव्विल्लएक्कवीसपयडीसु आणुपुव्वीमवणेदण ओरालियसरीर हुंडसंठाण-उवघाद पत्तेय-साधारणसरीराणमेकदरं पक्खित्ते चदुवीसपयडीणं उदयट्ठाणं होदि । तं कम्हि होदि ? होते हैं। उनमें आताप और उद्योतसे रहित एकेन्द्रिय जीवके उद्यस्थान कहते हैं तिर्यंचगति', एकेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मण शरीर', वर्ण', गंध', रस स्पर्श', तियंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक", स्थावर", बादर और सूक्ष्म इन दोमेसे कोई एक, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे एक३, स्थिर" और अस्थिर", शुभ६ और अशुभ, दुर्भग", अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्तिमेसे एक और निर्माण', इन इक्कीस प्रकृतियोंका उदय विग्रहगतिमें वर्तमान एकेन्द्रिय जीवके होता है। शंका-यह इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान कितने काल तक रहता है ? समाधान-जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः तीन समय यह उदयस्थान रहता है। यहां अक्षपरावर्तन करके भंग निकालना चाहिये । उनमें अयशकीर्तिके उदयसहित (बादर-सूक्ष्म और पर्याप्त-अपर्याप्तके विकल्पसे)चार भंग होते हैं । यशकीर्तिके उदयसहित एक ही भंग होता है, क्योंकि, सूक्ष्म और अपर्याप्तके साथ यशकीर्तिके उदयका अभाव है, अथवा यों कहो कि यशकीर्ति के साथ सुक्ष्म और अपर्याप्त प्रकृतियोंका उदय नहीं होता । इस प्रकार यहां भंग पांच होते हैं (५)। पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वी को छोड़कर औदारिकशरीर, हुंडसंस्थान, उपघात, तथा प्रत्येक और साधारण शरीरोंमेंसे कोई एक, इन चारको मिला देनेपर चौवीस प्रकृतियोंघाला उदयस्थान हो जाता है। शंका-यह चौवील प्रकृतियोंवाला उदयस्थान किस कालमें होता है ? १ तत्थासत्था णारय-साहारण-सुहुमगे अपुष्णे य । सेसेग-विगलऽसपणी जुदठाणे जस जुगे भंगा॥गो.क. ६... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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